मुलायम के गढ़ से मौलाना का माया की मुहब्बत के मायने…।

3
1018

क्या पिछले 25 सालों से मुसलमानों के मसीहा कहे जाने वाले मुलायम सिंह यादव से मुसलमानों का मोहभंग हो रहा है?

पिछले दिनों उन के संसदीय क्षेत्र आजमगढ़ से राजनीति के मैदान में उतरी मौलाना आमिर रशादी की राष्ट्रीय ओलमा कौन्सिल का बसपा के साथ गठबंधन हुआ है जिससे सियासी समझ रखने वालों के दिमाग में कुछ सवाल पैदा हुआ है  कुछ लोग इस इत्तेहाद से खुश है और मौलाना आमिर रशादी  के इस क़दम को सराहनीय बता रहे है तो वही कुछ लोग इस इत्तेहाद को अलग नज़रिये से देख रहे हैं और कह रहे हैं, क्या मजबूरी थी मौलाना की? जो उन्होंने ने बसपा से इत्तेहाद किया और वो भी बिना किसी सियासी हिस्सेदारी के।

तो क्या मान लें, कि मदरसे से निकली मुसलमानों की क़यादत अब दलित मुस्लिम मोर्चे की राह पकड़ चुकी है।

कुछ लोग ऐसे भी है जो इल्जाम लगा रहे हैं कि मौलाना ने अपने निजी स्वार्थ के लिए बसपा के सामने आत्मसमर्पण कर दिया है। लेकिन क्या सियासत की बिसात पर चली गई इस चाल के इतने सतही मायने हैं???

परदे के पीछे के मकसद पे आइए एक नज़र डालते हैं।

1-  ये गठबंधन भाजपा के डरसे नहीं बल्कि दादरी और बाबरी के क़ातिलों व मुज़फरनगर ,भागलपुर ,हाशिमपुरा के मुलजिमों को सजा दिलाने लिए हुआ है।

2- एक भी सीट नहीं मिलने के बावजूद भी ये हुआ तो इसके पीछे भी यही सोच थी , क्या एक दो सीट मिल जाने से मुसलमानों की गरीबी बेरोजगारी अशिक्षा और पुलिसिया उत्पीड़न दूर हो जायेंगे।

3- धारा 341 से मजहबी क़ैद को हटा कर दलित मुसलमानों को भी आरक्षण के दायरे में लाने का वादा ।

4-  समाजवादी पार्टी के शासनकाल में हुए सांप्रदायिक दंगो की SIT से जाँच कराकर दोषियों सजा दिलवाना।

5-  निमेष कमीशन की ATR  पर अमल करवाना।

6- डिप्टी एस पी जिया उलहक़ की हत्या की जाँच करा कर दोषियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही का वादा।

कभी यही मुद्दे तो समाजवादी पार्टी के भी हुआ करते थे। तो क्या सपा के सुप्रीमो का ताज छिनने के बाद अब मुलायम से मुल्ला के लकब के छिनने की बारी है?

3 COMMENTS

LEAVE A REPLY