झूठ फ़रेब नफरत और पागलपन ने श्रीलंका को तबाही के मुहाने पर ला खड़ा किया!

नकली शेर एक पूरे देश का शिकार कर गया। राजपक्षे आज भी चिल्ला रहा है कि "मैं देश नहीं बिकने दूंगा"... लेकिन श्रीलंका अब बिक चुका है और अचेतन अवस्था में पहुंचाई गई जनता अब जागी है। अब बहुत देर हो चुकी है।

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लखनऊ । झूठ, फरेब, नफरत, लफ्फाजी, धर्म व नस्लीय पागलपन का इतिहास उठाकर देखिए, एक भी ऐसा मुल्क आपको नहीं मिलेगा, जिसने इसकी बड़ी क़ीमत न चुकाई हो।‌ श्रीलंका इसका सबसे ताज़ा-तरीन उदाहरण है उन हुक्मरानों के लिए भी और उस आवाम के लिए भी जो बिना सोचें-समझे अपने लिए ही तबाही का इस्तकबाल करने पर आमादा है। फिलहाल, श्रीलंकाई राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने आपातकाल की घोषणा कर दी है। राष्ट्रीय शीर्ष नेतृत्व द्वारा लिए गए बे-सिर पैर के निर्णयों, सिंघली अस्मिता, फर्जी राष्ट्रवाद ने आखिरकार श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को रसातल तक पहुंचा ही दिया। श्रीलंका आज अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। एक अच्छा भला और ऊर्जावान राष्ट्र प्रच़ड बहुमत से चुनी हुई सरकार के हाथों नष्ट हो रहा है।

श्रीलंकाई नागरिकों को “अच्छे दिनों” के सपने दिखाने वाली सरकार जनता की बुनियादी जरूरतें तक पूरी न कर सकी। पेट्रोल-डीजल, दूध, खाद्य तेल और अन्य दूसरी खाद्य सामग्रियां इतनी महंगी हो गई हैं कि लोगों की खरीद हैसियत से बाहर हो गईं। पूरी दुनियां में अपने खूबसूरत समुद्र तटीय पर्यटन, बौद्ध स्तूपों व पगौडों और रामचरित मानस के कथानकों से जुड़े स्थलों के लिए मशहूर यह देश आज आर्थिक तौर पर बदहाल हो चुका है। श्रीलंका एक बार फिर गृह युद्ध के भयावह मुहाने पर आकर खड़ा हो गया है।

थोड़ा सा पीछे ले चलता हूं। श्रीलंका में बहुसंख्यक सिंहली समुदाय और अल्पसंख्यक तमिलों के बीच 23 जुलाई, 1983 से आरंभ हुआ गृहयुद्ध लगभग 25 सालों तक चला। अपनी निरंतर उपेक्षा, उत्पीड़न और संवैधानिक अधिकारों से वंचित किए जा रहे तमिलों का यह संघर्ष मुख्यतः श्रीलंकाई सरकार और अलगाववादी गुट लिट्टे के बीच लड़ा जाने वाला युद्ध था। 2009 में, ढाई महीनों के सैन्य अभियान के बाद मई में श्रीलंकाई सेना ने लिट्टे को खत्म किया।

यह एक ऐसा गृहयुद्ध था जिसने श्रीलंका की अर्थव्यवस्था और पर्यावरण दोनों को बहुत बुरी तरह से झकझोर दिया था। सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस जातीय संघर्ष में दोनों ओर से करीब 80,000 लोग मारे गए थे। जब-जब सत्ताएं अपने राजनैतिक स्वार्थ वश नागरिकों में परस्पर नफरत पैदा करती हैं तो उसका परिणाम श्रीलंका जैसा ही होता है। श्रीलंकाई तमिलों को लगा कि संविधान और सरकार की नीतियां उन्हें उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित कर रही हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि तमिल और सिंहली समुदायों के बीच संबंध बिगड़ते चले गए।

श्रीलंका सरकार बहुसंख्यक सिंंघलियों को खुश करने के लिए एक कानून ले आई। इस कानून के अनुसार देश की राष्ट्रभाषा सिंहली कर दी गई। इससे गैर-सिंहलियों को रोजगार मिलना लगभग असंभव हो गया। जो पहले से नौकरी में थे, उन्हें नौकरी से निकाला जाने लगा। तत्कालीन श्रीलंकाई प्रधानमंत्री एस0डब्ल्यू0आर0डी0 भंडारनायके ने शिक्षा का कथित मानकीकरण भी कर डाला। इस कानून के कारण विश्वविद्यालयों में तमिलों का प्रवेश असंभव हो गया।

नौकरियों में भी गैर-सिंहलियों के लिए कोई काम नहीं बचा। उन्हें नौकरियों से निकाला जाने लगा। पूरी तरह से उपेक्षित तमिलों ने तमिल यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट का गठन किया। इस संगठन ने सशस्त्र संघर्ष का समर्थन किया। बेरोजगार और बेकार तमिल युवकों ने हथियार उठा लिए। वामदल ने शुरुआत में सांप्रदायिक संघर्ष का समर्थन नहीं किया लेकिन बाद में, भाषा के मुद्दे पर वामदलों ने टीयूएलएफ का साथ दिया और 1974 में लिबरेशन टाईगर ऑफ तमिल ईलम का गठन किया गया। इसके बाद एलटीटीई ने राजनीतिक और प्रशासनिक प्रतिष्ठानों पर भयावह हमले आरंभ कर दिए।

लिट्टे की समाप्ति के बाद 2010 से श्रीलंका में पर्यटन व्यवसाय खूब फला-फूला। विदेशी पर्यटकों की पसंदीदा जगह श्रीलंका बन गया, लेकिन श्रीलंकाई सत्ता ने अपनी जनता को “अच्छे दिन आएंगे” के नारे के बीच ऐसा बरगलाया कि आज उसकी आवाम एक किलो चावल के लिए तरस रही है। कहते हैं जिस घर या देश में शांति रहती है वहां विकास की रौशनी आती है लेकिन वह तभी संभव है जब सत्ताएं “सबका साथ सबका विकास” चाहें।

परस्पर वैमनस्य पैदा करने का भयावह रूप 1019 में फिर देखने को मिला। 21 अप्रैल, 2019 को श्रीलंका में जगह-जगह बम ब्लास्ट हुए। कोलंबो में ही 50 से ज्यादा लोग मारे गए । अलग-अलग होटलों और शहरों में ब्लास्ट की घटनाओं में 300 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पर्यटन पर निर्भर थी इस घटना के बाद विदेशी पर्यटक श्रीलंका से गायब हो गये। श्रीलंकाई सरकार का बयान आया कि सभी आठ आत्मघाती हमलावर श्रीलंकाई नागरिक थे और वह राष्ट्रीय तौहीत जमात से जुड़े थे। यह एक स्थानीय आतंकवादी इस्लामी समूह है जो पहले बौद्धों और सूफियों के खिलाफ हमलों के लिए जाना जाता है।

राज्य के रक्षा मंत्री रुवान विजेवर्धने ने संसद में कहा कि सरकार का मानना ​​है कि यह हमला 15 मार्च, 2019 को क्राइस्टचर्च मस्जिद की गोलीबारी के प्रतिशोध में किया गया था। नफरत-प्रतिशोध, आत्ममुग्धता से भरे श्रीलंकाई नेताओं ने पूरे देश को तबाह कर दिया। हुक्मरान कूटनीतिक मोर्चे पर बुरी तरह से फेल हुए तो चीन की गोद में जा बैठे। श्रीलंका को चीन की नजदीकी भारी पड़ी है। चीन की रणनीति ऐसी है कि जिस-जिस देश में उसने अपने निवेश बढ़ाए हैं, वहां राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता तेजी से बढ़ी है।

भारत के संदर्भ में मैं यहां यह लिखना चाहूंगा कि चीन-भारत के भी अप्रत्याशित रूप से आयात-निर्यात में जबरदस्त असमानता है। गुजरात की इंडस्ट्रीज में चीन का जबरदस्त दबदबा है। एक वर्ष पहले मैं इसपर विस्तार से लिख चुका हूं। खैर, चीनी चाल के श्रीलंका और पाकिस्तान दो बड़े उदाहरण हैं और दोनों की गर्दनें चीनी हाथों में हैं। चीन से लिया गया अनाब-शनाब कर्ज श्रीलंका की आर्थिक बदहाली की बड़ी वजह बना और विदेशी मुद्रा भंडार में आई गिरावट ने कमर तोड़ दी। श्रीलंका के विदेशी मुद्रा भंडार में 70 फीसदी की गिरावट आई है। फिलहाल श्रीलंका के पास मात्र 2.31 अरब डॉलर बचे हैं। विदेशी मुद्रा के रूप में सिर्फ 17.5 हजार करोड़ रुपये ही श्रीलंका के पास शेष हैं।

श्रीलंका कच्चे तेल और अन्य चीजों के आयात पर हर साल 91 हजार करोड़ रुपये खर्च करता है लेकिन अब उसके पास सिर्फ 17.5 हजार करोड़ रुपये ही शेष हैं। मतलब आमदनी 10 पैसा खर्चा रुपैया…। श्रीलंका में पेट्रोल-डीजल खत्म हो चुका है और खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं। डीजल की किल्लत के कारण श्रीलंका के सारे बड़े बिजली संयंत्र बंद हो गए हैं। 24 घंटे में 13 घंटे बिजली मिल रही है। हालात यह हैं कि स्ट्रीट लाइट भी बंद कर दी गई है। अस्पतालों में बिजली किल्लत है और ऑपरेशन तक टाल दिए गए हैं। दवाइयों और खाने-पीने की चीजों के लिए लंबी-लंबी कतारें लगी हैं। लोगों की क्रय क्षमता खत्म हो गई है और अब जनता सड़कों पर है।

श्रीलंका पर्यटन उद्योग के बाद चाय, मसाले, रबर, और तमाम हार्टिकल्चर की फसलों का प्रमुख उत्पादक देश था। लोग आराम से कमा-खा रहे थे। समृद्ध मध्यम वर्ग था। बेहतरीन शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं वाला यह देश आज दवा की एक-एक टैबलेट के लिए तरह रहा है।

लिट्टे चीफ प्रभाकरण का सफाया करके राजपक्षे ने जनता का दिल जीत लिया। राजपक्षे को जनता ने विष्णु का 11वां अवतार मान लिया। प्रचंड बहुमत दिया। अब आत्ममुग्ध शेर अकेले ही ‘चरने’ निकल पड़ा। पहले मीडिया को अपने गुणगान करने के लिए कुत्ते की तरह पाला गया फिर तमाम संवैधानिक संस्थाओं को रौंदा गया लेकिन श्रीलंकाई आवाम विष्णु के इस 11वें अवतार के लिए तालियां पीटती रही। वह मानती रही कि राजपक्षे ने जो किया है वो ठीक ही किया होगा। राजपक्षे हैं तो मुमकिन हैं।

राजपक्षे निरंकुश हुआ और निरंकुश शासक की यह खासियत होती है कि वह स्वयंभू सर्वज्ञाता हो जाता है। अर्थव्यवस्था, बैंकिंग सेक्टर, व्यापार, साइंस एंड टेक्नोलॉजी पर राजपक्षे उल्टे-सीधे निर्णय लेने लगे।

श्रीलंकाई राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने श्रीलंका को आर्गेनिक कृषि में विश्वगुरू बनाने की ठान ली थी और जनता तो पहले से ही पगलाई थी। वह श्रीलंका को आर्गेनिक खेती का विश्वगुरू बनते देखना चाहती थी। प्रचंड बहुमत से सर्वशक्तिमान और आत्ममुग्ध आदमी बहुत ही खतरनाक होता है और यह खतरा तब और बढ़ जाता है जब वह कम पढ़ा-लिखा हो। हालांकि राजपक्षे पढ़ा लिखा है। एक दिन राजपक्षे को रासायनिक खादों का demonetisation करने की सनक सवार हुई। रातों-रात श्री लंका में फर्टिलाइजर व कीटनाशक दवाएं प्रतिबंधित कर दी गईं।

श्रीलंका की जनता बोल उठी-“घर-घर राजपक्षे, हर-हर राजपक्षे।” राजपक्षे विश्व के डंकाशाह हो गये। यूनाइटेडनेशन तक ने तारीफ कर दी कि वाह! क्या “बांस मारा” है। लेकिन श्रीलंका सहित विश्व के तमाम कृषि वैज्ञानिकों ने राजपक्षे को चेताया कि यह आत्मघाती होगा। आत्ममुग्ध व्यक्ति को आत्मघात का एहसास नहीं होता है। आखिरकार श्रीलंका की कृषि तबाह हो गई। राजपक्षे का “मजबूत इरादे साफ नियत” का नारा सब कुछ तबाह कर गया।

श्रीलंका में “सबका साथ सबका विनाश” हो गया। उधर फसलें तबाह हो गईं, पर्यटन उद्योग नष्ट हो गया, चीन से लिए कर्ज ने कमर की सारी हड्डियों को चकनाचूर कर दिया। जनता भुखमरी की कगार पर पहुंच गई तो राजपक्षे ने सेना के एक जनरल को आदेश दिया कि व्यापारियों के अनाज गोदामों पर छापे मारो। खुन्नस खाए व्यापारियों ने भी विदेशों से अनाज का आयात ही रोक दिया। चीन का कर्ज न चुका पाने के कारण श्रीलंका को हम्बनटोटा बंदरगाह 99 साल की लीज पर चीन को देना पड़ गया। नकली शेर एक पूरे देश का शिकार कर गया। राजपक्षे आज भी चिल्ला रहा है कि “मैं देश नहीं बिकने दूंगा”… लेकिन श्रीलंका अब बिक चुका है और अचेतन अवस्था में पहुंचाई गई जनता अब जागी है। अब बहुत देर हो चुकी है।

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