हॉ… कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा!

ये बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इरफ़ान, जब-जब हमारी यादों में उभरेगा। वो हमें याद दिलाता रहेगा कि हमारे सामने एक ध्रुव तारा था और हम जुगनुओं को देख के अपनी दिशाएँ तय करते रहे... पुनीत शर्मा

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आज मैं दुखी तो हूँ ही लेकिन गुस्सा भी हूँ और मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे जैसे बहुत से लोग हैं, जो आज गुस्सा हैं। हम सब के बीच, एक सामूहिक ग्लानि है। एक शर्म है और एक गुस्सा है। गुस्सा इस बात का कि हम एक दोयम दर्ज़े की मिडियोकर दुनिया में रह रहे हैं और हमें ढंग से पता भी नहीं है कि इसके कारण हम क्या-क्या गवा देते हैं।

मैं कल कुछ देर के लिए दुखी था लेकिन उस से ज़्यादा गुस्सा था। ख़ुद पर भी और अपने आसपास की दुनिया पर भी। ये गुस्सा हमेशा मेरे भीतर रहता है लेकिन कल ये अपने उफ़ान पर था। मेरे अंदर का गुस्सा चीख के नहीं निकलता, किसी को मार के नहीं निकलता। वो बस एक बहुत गहरी निराशा की एक सुरंग खोदने लगता है। जिसके अंदर मैं चुपचाप बैठ जाता हूँ और ख़ुद से बुदबुदाते हुए बात करने लगता हूँ।

मैं आपको बताता हूँ कि मुझे इस मिडियोकर दुनिया पर गुस्सा क्यूँ आता है। वो गुस्सा इसलिए आता है क्यूँकि ऐसी दुनिया, इरफ़ान जैसे सितारों को लगभग पूरी तरह से ज़ाया कर देती है और इस बात पर अपने आप पर फ़िदा भी होती रहती है। जैसे कोई नालंदा के विहार से चार पन्ने उठाकर उसे पूरी नालंदा का ज्ञान समझने लगे।

क्या किया हमनें इरफ़ान के साथ? कितना इंसाफ़ किया? हमारे चंद फिल्मकारों के अलावा, उस इंसान को सबने, सबने ज़ाया किया। इसके बावजूद भी इऱफान ने जो हमें दे दिया, वो हमारी ख़ुश-किस्मती है। उसका वो सबकुछ देना उसकी मेहनत और उसका जज़्बा था और ये हमारी ख़ुश-किस्मती है। उस में भी अधिकतर लोग वो थे, जो इरफ़ान को जानते थे। जिन्होंने उसे केवल अभिनेता से ज़्यादा एक इंसान के तौर पर जाना था।

मुझे लगता है कि इरफ़ान और इस देश का रिश्ता ऐसा रहा जैसे कोई कोहिनूर किसी पाषाण युग की आबादी के हाथ में ख़ुद चलकर आए और वो उस से पत्थर तोड़ने लगे। मैं अपने आने वाली पीढ़ी से कह सकता हूँ और उसे दिखा भी सकता हूँ कि मैंने सच में लोगों को कोहिनूर से पत्थर तोड़ते हुए देखा है। उस से जगलरी करते है देखा है और उस पर लोगों को ताली बजाते हुए भी देखा है।

मैं आज अपने आसपास देखता हूँ और मुझे लगता है कि इरफ़ान के जाने के दुःख से ज़्यादा, हम में से कई लोगों के अंदर एक अजीब सा गुस्सा है। एक अजीब सी ग्लानि है। एक पश्चाताप है। मुझे आज ये महसूस होता है और मुझे इस बात का यकीन भी है कि आज के बाद, मेरे जैसा या मुझसे बेहतर कोई लेखक जब कुछ लिखेगा, तो बार-बार इस बात पर सर पटकेगा कि वो अब इरफ़ान के साथ काम नहीं कर पाएगा। उसके किरदार को अब किसी और के साथ समझौता करना पड़ेगा। ये भी सच है कि शायद इरफ़ान के रहते भी हम में से कईयों को ये मौका नहीं मिलता लेकिन एक उम्मीद तो ज़िंदा रहती। कोई और उम्मीद, किसी और शक़्ल में कहीं और ज़िंदा ज़रूर होगी लेकिन वो इरफ़ान नहीं होगी।

ऐसा लगता है जैसे एक मीठे पानी का अथाह गहरा दरिया हमारे सामने था और हमनें उसमें से, ढंग से एक घूँट भी नहीं पिया। हद से हद हमनें उस में अपना चेहरा देखा और उसी पर मोहित होते रहे। एक दरिया ने करोड़ों लोगों के सामने अपना विस्तार खोल रखा था और उस में से मुट्ठी भर लोगों ने भी उस में गोता नहीं लगाया। हम में से कई तो उस में कौआ स्नान करके उसे गोताखोरी का नाम देते रहे और देते रहेंगे।

उस दरिया से हम न जाने कितना कुछ माँग सकते थे और मुझे यकीन है कि वो हमें झोली भर-भर के देता। वो हमें लहर फेंक-फेंक के देता। मुझे लगता है कि उसे तो देने की ज़रूरत भी नहीं पड़ती। हमें ही अगर ढंग से ओक बनानी आती, तो उसका दरिया सबके लिए खुला था। मगर हमें ओक बनानी नहीं आयी और हम उस में हाथ मार-मार के हद से हद छपाके उड़ाते रहे।

ऐसा लगता है जैसे ये एक बहुत लंबा इंटरव्यू था। जिस में एक चलता फिरता इनसाइक्लोपीडिया हमारे सामने बैठा था और हम किसी दोयम दर्ज़े के पत्रकार की तरह, उस से वही घिसे-पिटे सवाल पूछते रहे, जो हम किन्हीं भैंस बराबर काले अक्षरों से पूछते आ रहे थे। हमने न जाने उस आदमी का कितना वक्त ज़ाया किया।

आज जब मैं उस इंटरव्यू के पन्ने पलटता हूँ, तो चंद सवालों के अलावा सारे के सारे सवाल मुझे दोयम और हास्यास्पद नज़र आते हैं। उसके बावजूद इरफ़ान ने उन दोयम दर्ज़े के सवालों का जवाब अपने अंदाज़ में दिया। उसने उन दोयम दर्ज़े के सवालों के जवाबों को भी एक अलहदा शक्ल दी। जिन्हें पढ़ के हम आज थोड़ा सा मुस्कुरा सकते हैं।

वो न जाने क्या सोच सोचकर हम पर अपनी बाँकी मुस्कुराहट फेंकता रहा। हम उसको एक अलग आह भर के देखते रहे, वो हमें एक अलग आह भर के देखता रहा।

इरफ़ान, ख़ुद अपने छोटे से शहर से निकलकर, अपने ही संघर्षों से वहाँ तक पहुँचा, जहाँ से आज हम उसे ठीक से अलविदा भी नहीं कह सके। हम बस वही घिसी पिटी बातें बुदबुदाते रहे, जो हम बुदबुदा सकते थे। हम उसके किस्से याद करते रहे। उसकी फ़िल्में देखते रहे और इसके सिवाय हम कर भी क्या सकते थे।

दरअसल इरफ़ान, हमारे समय का वो एक रूपक है, जो हमें हमारी अकर्मण्यता की भी याद दिलाता रहेगा। जो हमारी मूर्खताओं को भी चिन्हित करता रहेगा। कम से कम जो सच में अपने भीतर झाँक सकते हैं, उन्हें तो वो ये सब याद दिलाता ही रहेगा। ऐसा लगता है कि जैसे हमारे हाथ में दुनियाभर का ज्ञान था और हम उसमें कुछ ढूँढने के लिए सही शब्द भी टाइप नहीं कर सके।

ये बात मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि इरफ़ान, जब-जब हमारी यादों में उभरेगा। वो हमें याद दिलाता रहेगा कि हमारे सामने एक ध्रुव तारा था और हम जुगनुओं को देख के अपनी दिशाएँ तय करते रहे।

हम आज भी प्रायोजित रोशनियों की चकाचौंध में, हमारे ही पैदा किए प्रदूषण में ढँके सितारे नहीं देख पा रहे हैं। अगले कुछ ही दिनों में, हम में से अधिकतर लोग फिर से ये भूल जाएंगे कि इस दोयम दर्ज़े की दुनिया के कारण, हम न जाने कितना कुछ असाधारण खो देते हैं।

हमारे सामने भोगने को एक पूरा युग होता है और हम उसे कितनी घटिया चीज़ों के साथ बिता देते हैं। हम कितनी सम्भावनाओं से मज़ाक करते रह जाते हैं।

हमें याद रखना चाहिए कि जब एक दरिया चला जाता है, तो हमारी ज़िंदगी से केवल एक दरिया नहीं जाता। उसके साथ बहुत कुछ जाता है। उस दरिया के साथ उसकी कश्तियाँ चली जाती हैं। उस दरिया के साथ उसकी मछलियाँ चली जाती हैं। उस दरिया के साथ चले जाते हैं उसके गोताखोर। उस दरिया के साथ एक सभ्यता भी चली जाती है। जब ऐसा दरिया चला जाता है, तो वो अपने पीछे एक इतनी बड़ी जगह छोड़ जाता है, जिसे भरने में एक सदी की बारिश भी कम पड़ जाती है। फिर असंख्य बूँदें मिलकर उस एक दरिया की जगह भरती हैं। वो दरिया जो बूँदों का कुल जमा नहीं, लहरों का कोई ढेर नहीं, अपने आप में एक पूरी इकाई था। जो अपनी सतह से लेकर गहराई तक एक था। जो घूँट लेने से घटता नहीं , बढ़ जाता था। जो न जाने कितने घूँटों के बाद कितना बढ़ सकता था।

इरफ़ान एक धुन थे। जिसे हम जितना गुनगुनाते, वो हमारे सामने उतनी खुलती चली जाती। हम अब भी उस धुन को गुनगुनाएंगे और ये एहसास करते रहेंगे कि वो कितनी और खुल सकती थी।

वैसे अब ये सब अंदाज़े ही हैं और अब हम बस इन बातों के केवल अंदाज़े लगा सकते हैं। अब बस वो इरफ़ान नाम का दरिया, इन अंदाज़ों के साथ, हमारी सारी मीठी यादों के साथ, हमारी सारी ग्लानि और सारे पश्चाताप को लेकर हमारी यादों में उभरेगा। जो अब भी इस बात से मुँह मोड़ेंगे। वो जो अब भी इस बात को नकारेंगे और नकारते रहेंगे। वो दरिया, उन लोगों पर अपनी बाँकी मुस्कुराहट फेंकता रहेगा। हम उसे एक अलग आह भर के देखते रहेंगे, वो हमें एक अलग आह भर के देखता रहेगा।

जाते-जाते आपको इरफ़ान का मतलब याद दिलाते जाता हूँ। इरफ़ान का मतलब होता है “enlightenment” और हमारा इरफ़ान, ठीक हमारे सामने था। हमें इरफ़ान हासिल हो सकता था लेकिन हम उसकी सरहद पर ही टहलते रहे। उसकी आँखों से आगे न जा सके। जैसा कि बशीर बद्र साहब कहते हैं।

आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा

कश्ती के मुसाफ़िर ने समुंदर नहीं देखा। 

1 COMMENT

  1. वाह शानदार आर्टिकल

    पुनीत जी आपने इरफान को एक बार पुनः जीवंत कर दिया। धन्यवाद

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