अपनी धुन में चला जाता एक बाबा

मैंने उन्हे गौर से देखा वह कोई 70 वर्ष के बुजुर्ग थे , उनके सिर के बाल जटाएं बन गरदन तक झूल रहे थे, विरल दाढी़, सिंहों की तरह नुकीले बढे़ नाखून , फटे मैल से काले पड़ गये वस्त्र और तलवे के मध्य भाग से भग्न प्लास्टिक जूते पहने वह निर्लिप्त छोटे कदमों से अर्जुनगंज की तरफ बढे़ जा रहे थे। ये वाक्या बता रहे हैं दिनेश कुमार गर्ग

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लखनऊ ।बाबा जी भरी दोपहरिया में पैदल चले जा रहे थे । मुझे अर्जुनगंज रेलवे ओवरब्रिज पर चढ़ते दिखायी पडे़ तो मैंने गाडी़ में ब्रेक लगायी और गाडी रुकते रुकते मैं कोई सौ मीटर आगे रूका तो फिर उतना ही पुल की ढलान पर रिवर्स गेयर में वापस आना पडा़ , 100 मीटर चढ़ती ढलान पर वापसी मुश्किल भरा काम था पर बाबा की विचित्रता के आकर्षण ने करवा लिया ।

ढलान पर ही मैंने उन्हे गौर से देखा वह कोई 70 वर्ष के बुजुर्ग थे , उनके सिर के बाल जटाएं बन गरदन तक झूल रहे थे, विरल दाढी़, सिंहों की तरह नुकीले बढे़ नाखून , फटे मैल से काले पड़ गये वस्त्र और तलवे के मध्य भाग से भग्न प्लास्टिक जूते पहने वह निर्लिप्त छोटे कदमों से अर्जुनगंज की तरफ बढे़ जा रहे थे । मेरी कार में न भोजन था न पानी की बोतल , बस 1 किलो अंगूर थे । मैं उसी का एक हिस्सा ले बाबा को प्रणाम कर देना चाहा तो बाबा ने साफ मना कर दिया और कहा कि चावल खिला ।

सन्नाटे में यह मांग मुझे चकरा गयी । मैंने रुपये निकाले और कहा कि आगे बाजार में खा लीजियेगा। पैसा छूना उन्हें गवारा न था । सख्ती से रुपये देने के मेरे प्रलोभन को ठुकरा दिया । चूंकि निर्लोभी बाबा ने भूख लगना और भात खाने की इच्छा टूटी फूटी हिन्दी में स्वीकार किया तो उस बाबा को मैं ऐसे छोड़ आगे नहीं जाना चाहता था। मैंने कहा बाबा कुछ और लीजिये भोजन यहां जंगल में नहीं मिल रहा।

उन्होंने दूधियों को देख कहा दूध देदे। यह भी असंभव हो गया क्योंकि दूधिये इस मलीन बाबा को चार गुने दर पर भी अपने बर्तन में दूध पिलाने को राजी नहीं हुए। अब समस्या बढ़ती जा रही थी , बाबा छुआ-छूत का कडा़ई से पालन करनेवाले निकले। इसलिए न मैं उन्हें छू सकता था न वह मेरी पीठ पर बैठने को तैयार थे, न वाहन पर बैठने को तैयार थे। पर मैं अब उनकी सेवा किये बगैर उन्हें छोड़कर जाना नहीं चाहता था। इसलिये मैंने गाडी़ को ओवरब्रिज के पाद-पार्श्व में पार्क किया और सोचने लगा कि क्या करूं । बाजार में लाॅकडाऊन है , मेरा घर दूर है और मैं घर जांऊ और चावल-दाल लेकर आऊं तब तक वे पता नहीं कहां अदृश्य हो जांय और मेरा प्रयास निष्बल हो जाये।

अब मुझे लगा कि एक ही रास्ता है जब तक बाबा ओवरब्रिज को पारकर नीचे आंये 10 मिनट के उतने समय में मैं किसी के घर से चावल मांग लाऊं । उनके लिए भिक्षाटन करूं। थोडी़ ही दूर पर मिलिटरी फार्म में ओवरब्रिज के पार्श्व में एक घर दिखा, मैंने जाकर टेर लगाई माता भिक्षां देहि । एक वृद्ध निकले तो मुझे भोजन मांगते देख अचकचा गये। कड़क कर बोले क्या बात है ?

मैंने नाटक करने के बजाय सच-सच बताया कि नेपाली बाबा पैदल दूर से आ रहा है और भूखा-प्यासा है आस-पास और कोई नहीं आप या तो दूध दें (उनके दरवाजे गाय बंधी थी )या दाल-भात दें। गृहस्वामी श्री शत्रोहन मौर्य भी परेशान कि उनकी पत्नी का ही भोजन शेष बचा था और वह चौकेपर इसी निमित्त थाली सजा रही थीं। मौर्य जी ने पत्नी पर विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए उनके हिस्से का दाल-भात और सब्जी एक बोतल पानी मुझे दान में दे दिया साथ में मेरे अनुरोध पर अपने दो दौहित्रों को भी भेज दिया ।

भोजन लेकर मैं जब बाबा के पास पहुंचा तो वह इंतजार कर रहे थे, मेरे हाथ से भोजन लेने के बजाय अपने दंड से सड़क के किनारे के तिनके साफ कर एक बिन्दु पर इशारा कर कहा कि यहां रख। रख दिया तो बडी़ देर तक कुछ मंत्र की तरह बुदबुदाते रहे । फिर बैठ गये और पुनः कुछ जपते रहे। फिर जिस तेजी से दाल-भात चट किया वह देखकर लगा कि वह बहुत भूखे थे। दो बोतल पानी पिया और फिर आगे बढ़ गये।

मुझे आश्चर्य इस बात का हुआ कि वह किसी से कुछ भी नहीं स्वीकार कर रहे थे न किसी को स्पर्श करने दे रहे थे । जलती धूप में किसी भी तरह की परिवहन सहायता लेने से मना कर पैदल चलना पसंद किया । न रुपये लिए, न बिस्किट्स के पैकेट लिए , न किसी के घर जाना पसंद किया , न अपना नाम बताया , कहां से आ रहे हैं और कहां तक जायेंगे यह भी नहीं बताया । ईश्वर उनकी मदद करे।

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