तो क्या मुसलमानों की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत के साक्षात्कार के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने मुसलमानों के बारे में जो कुछ कहा है उससे मुसलमानों के तथाकथित शुभचिंतक, संविधान के तथाकथित रक्षक एवं भारतीय लोकतंत्र के तथाकथित निरीक्षक एवं पत्रकारिता के तथाकथित परीक्षक काफी रोष में हैं। डॉ भागवत के साक्षात्कार के अर्थ को उसके संदर्भ में व्याख्यायित कर रहे हैं पत्रकार डॉ मुहम्मद मिराज अहमद

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हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने हिन्दी साप्ताहिक पांचजन्य और अग्रेजी साप्ताहिक आर्गनाइजर को बहुप्रतीक्षित एक विस्तृत साक्षात्कार दिया है। जिसमें उन्होंने भारत के अतीत से सबक लेकर वर्तमान की चुनौतियों को मद्देनजर रखते हुए भविष्य के भारत पर अपना दृष्टिकोण भारत की जनता के सामने रखा है। उस साक्षात्कार के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने मुसलमानों के बारे में जो कुछ कहा है उससे मुसलमानों के तथाकथित शुभचिंतक, संविधान के तथाकथित रक्षक एवं भारतीय लोकतंत्र के तथाकथित निरीक्षक एवं पत्रकारिता के तथाकथित परीक्षक काफी रोष में हैं।

डॉ भागवत के उस उत्तर को जिसमें उन्होंने मुसलमानों के कुछ लोगों की सामंती सोच एवं राजशाही विरासत की हठधर्मिता को वर्तमान भारतीय समाज के लिए अमान्य बताया है तथा हिन्दू समाज की आक्रमकता को परिस्थितियों का परिणाम बताते हुए हिन्दू समाज को इस आक्रमकता से बचने की सलाह दी है, लेकिन पत्रकारिता के तथाकथित स्वयंभू परीक्षकों मैडम जोशी, मिस्टर कुमार, मैडम मिश्रा, मिस्टर अभिसार समेत मैडम खानम, मिस्टर आशुतोष जैसे लोग मुसलमानों से इसका पारितोष (Follow, Like, Share and Subscribe) प्राप्त करने और तथाकथित प्रगतिशील पार्टियां मुसलमानों को नागरिक के बजाय भेड़ें बनाने के लिए चौसर बिछा के बैठ गई हैं।

आखिर डॉ भागवत ने ऐसा क्या बोल दिया है जो मुसलमानों के लिए अल्टीमेटम है, तथा मुसलमानों के भारत में रहने खाने पढ़ने पहनने के लिए शर्तें बताई जा रही हैं! उन्होंने यही तो कहा है कि”हम राजा थे हम बड़े हैं, ये श्रेष्ठता का भाव नहीं चलेगा किसी में भी ये भाव हो ये नहीं चलेगा” । डॉ भागवत एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन चलाते हैं उन्होंने जो सलाह दी है वो समाज में प्रेम सद्भाव और सौहार्द को मजबूत करने के लिए दी है। कोई भी भी मानवता का प्रेमी यही सलाह देगा। जरा कल्पना कीजिए क्या उस समाज में समरसता कायम हो सकती है जिसमें “हम बड़े और तुम छोटे” “हम राजा तुम रंक” ” हम दाता तुम भिखारी” जैसी अमानवीय सोच हो? क्या ये सच नहीं कि कुछ मुसलमान बात बात में ताजमहल लालकिला को अपने बाप की जागीर और बात ही बात में अपने आपको सभ्य बताने के दावे के क्रम में ये बोलते हुए सुने जाते हैं कि तुम्हें तो लंगोट बांधने की तमीज़ नहीं थी तुम्हें पाजामे में नाड़ा बांधना हम ने सिखाया!

अगर डॉ भागवत इस तरह की असभ्य और अमानवीय सोच को सामाजिक रूप से अमान्य बताते हुए इसे छोड़ने की बात कहते हैं तो इसमें क्या गलत है। इस तरह की सोच किसी भी सभ्य समाज में अमान्य होनी चाहिए हालांकि इस तरह की सोच कानूनी रूप से अपराध नहीं है बशर्ते कि उसका सार्वजानिक प्रदर्शन किसी को अपमानित करने के लिए ना हो, लेकिन ऐसी सोच निसंदेह सौहार्दपूर्ण समाज के लिए घातक है। हालांकि हिन्दू समाज में बढ़ती आक्रामकता को जरूर उन्होंने परिस्थितियों का कारण बताया है उन्होंने इस व्यवहार की आलोचना भी की है। लेकिन इस बात को शातिराना चतुराई के साथ छिपा कर तथाकथित बुद्धिजीवियों एवं पत्रकारों ने मोहन भागवत की अपील को 2025 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शताब्दी वर्षगांठ के अवसर पर मुसलमानों के नरसंहार के पूर्व भूमिका के तौर पर प्रचारित करना शुरू कर दिया है। इसीलिए मैं बार बार बोलता हूँ कि मुस्लिम समुदाय को सामाजिक विषयों का अवश्य अध्ययन करना चाहिए ताकि वो किसी भी बयान का ठीक ठीक विषय वस्तु विश्लेषण कर सके एवं उसे उसके संदर्भ में समझ सकें ताकि वो किसी बहुरुपिये द्वारा हांकी जाने वाली भेड़ों के बजाय एक सजग सहज एवं सतर्क नागरिक बन सकें।

ऐसा नहीं है कि मुस्लिम समुदाय की आक्रमकता से चिंतित होने वाले डॉ मोहन भागवत कोई पहले व्यक्ति हों, तकरीबन सौ साल पहले 1920 में महात्मा गाँधी ने इसी तरह के सवाल के जवाब में मुसलमानों के संबंध में कहा था कि “मुसलमान आक्रामक होता है” जिसकी परिणति 14 अगस्त 1947 को पाकिस्तान के रुप में दुनिया के सामने आई उससे पहले भी भारत के संदर्भ में ये ऐतिहासिक तथ्य हैं। लेकिन सवाल यह है कि आज के दौर में इस आक्रामकता के क्या कारण हैं जबकि भारत सरकार द्वारा गठित सच्चर कमेटी की रिपोर्ट कहती हैं कि मुसलमान आर्थिक, राजनीतिक एवं शैक्षिक रुप से सबसे ज्यादा पिछड़े हुए हैं।

मोटे तौर पर मुसलमानों में आक्रामकता के दो कारण समझ में आते हैं। पहला तो ये उस वर्ग की कुंठा है जिसकी तरफ डॉ मोहन भागवत ने इशारा किया है ये वही वर्ग है जो अपनी गर्भ नाल अरब इरान अफगानिस्तान और उज़्बेकिस्तान वगैरह से जोड़ने में गर्व की अनुभूति करता है। डॉ भागवत के शब्दों में कहें तो “श्रेष्ठता का बोध” रखता है। इस वर्ग की कुंठा 700 या 800 सालों की सत्ता से वंचित होने की है हालांकि इसने पाकिस्तान बना कर अपनी कुंठा पर थोड़ी बहुत मरहम रखने की कोशिश की है लेकिन अभी भी असंतुष्ट है। बकौल सुप्रसिद्ध शायर जॉन एलिया के “पाकिस्तान, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के लौंडों की शरारत थी “। सत्ता पाने की उत्कंठा में ये “मुसलमान खतरे में हैं इस्लाम खतरे में है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुसलमानों का दुश्मन है” इस प्रकार के नैरेटिव गढ़ता है और उसे परवान चढ़ाने के लिए आज के तथाकथित पसमांदा मुसलमान इसके फुटसोल्जर बनते हैं। धर्मांध एवं धर्म भीरु मुसलमानों की नकेल अपने हाथों में रखने के लिए ये कभी कॉग्रेस का दामन थामता है तो कभी क्षेत्रीय दलों का, और आजकल तो ये भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परिक्रमा कर रहा है। इसको आप एक लाइन में समझ सकते हैं कि “आरिफ़ उधर हैं तो आरफ़ा इधर हैं”। दूसरा इस आक्रामकता के आस्था आधारित कारण भी हैं वो जानना जरूरी है। इस्लाम की आस्था के अनुसार “सर्वोत्तम इमान वो है कि अगर कुछ गलत होता हुआ देखो तो उसे ताकत के जोर पर रोक दो” “अच्छा इमान यानि दूसरे दर्जे का इमान वो है कि अगर कुछ गलत होता हुआ देखो लेकिन ताकत के बल पर नहीं रोक सकते तो उसे बोल कर रोकने की कोशिश करो एवं सबसे न्यूनतम दर्जे का इमान वो है कि अगर कुछ गलत होता हुआ देखो तो उसे दिल में बुरा समझो और उसे खत्म करने के लिए ताकत इकट्ठा करो ” यहां पर शर्त ये है कि उस “गलत” की व्याख्या इस्लाम की मान्यताओं के अनुरूप होगी।

अगर मुसलमान इन मान्यताओं को व्यक्तिगत स्तर पर लागू करने में लग जाये तो सोचिये कि समाज में कैसी अराजकता फैल जायेगी, मुसलमानों और उनके नेताओं (धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक) को ये सोचना चाहिए कि ये मध्ययुगीन व्यवस्था नहीं है जहाँ सब कुछ रणकौशल एवं बौध्दिक चातुर्य से संचालित होता था। आज एक सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित शासन प्रणाली है। जहाँ पर “गलत” शब्द एवं कृत्य के प्रावधान संविधान द्वारा निर्देशित एवं सर्वोच्च न्यायालय द्वारा व्याख्यायित किये जाते हैं । हालांकि बुराईयों को रोकने में लोकलाज एवं समाज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन उसके लिए जरूरी है कि इमानदार एवं निःस्वार्थ लोगों का साथ लिया जाये तथा उन्हें प्रोत्साहित किया जाये।

विशेषकर मुस्लिम समुदाय के मामले में सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत की तमाम नेक नियति के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका मुझे बहुत निराश करती है। फिर भी मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत (Dr Mohan Bhagwat) की नेक नियती के साथ हूँ। बीते दिनों के कई बयान उनकी शुभ इच्छाओं के प्रमाण हैं फिर भी मुसलमानों के संदर्भ में डॉ भागवत जिस मैत्रीपूर्ण एवं सौहार्दपूर्ण समाज की कल्पना कर रहे हैं उसके लिए उन्हें लोभी-लालची ढोंगी-पाखंडी सामंती तथाकथित “बड़े व प्रभावशाली” मुसलमानों के बजाय इमानदार एवं निस्वार्थी मुसलमानों की तलाश करनी होगी ताकि हिन्दुत्व अधूरा ना रहे।

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