सास बहू : श्रीमती गॉधी और श्रीमती गॉधी!

श्रीमती इंदिरा गांधी और श्रीमती सोनिया गांधी मे कई समानता हैं। दोनों एक ही वंश की हैं, दोनों ने लम्बे समय तक सत्ता सुख भोगा और अपवाद जाने दें तो कुल मिला कर कानून सम्मत शासन ही किया। और सबसे बड़ी बात भारत को सम्पन्न बनाने मे दोनों का ही खासा योगदान है। लेकिन एक बड़ा फर्क भी है दोनों मे। ये लेखक के अपने विचार है न्यूज डॉन का सहमत होना जरूरी नहीं है।

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श्रीमती इंदिरा गांधी और श्रीमती सोनिया गांधी मे कई समानता हैं। दोनों एक ही वंश की हैं, दोनों ने लम्बे समय तक सत्ता सुख भोगा और अपवाद जाने दें तो कुल मिला कर कानून सम्मत शासन ही किया। और सबसे बड़ी बात भारत को सम्पन्न बनाने मे दोनों का ही खासा योगदान है। लेकिन एक बड़ा फर्क भी है दोनों मे। इंदिरा गांधी पूरी ट्रेनिंग के बाद सायास राजनीति मे आई और सोनिया को समय ने राजनीति की राह दिखा दी। नेहरू जी ने अपनी एकमात्र कन्या इंदिरा के पालन पोषण मे खासी दिलचस्पी ली, लेकिन उस समय नेहरू का ही भविष्य तय नही था तो इंदिरा के राजनीति मे जाने की बात करना ही बेमानी था, लेकिन उस राजनैतिक महौल मे इंदिरा गांधी रच बस तो रही ही थीं। 

ऐसे मे किसी भी दूसरी लड़की की तरह इंदिरा ने पढ़ा ई पूरी करने के बाद शादी की और घर बसाया और अपने बच्चों मे व्यस्त हो गई। तब तक समय बदल गया और नेहरू प्रधानमंत्री बन गए। यह इंदिरा गांधी के जीवन मे भी निर्णयक मोड रहा। एकमात्र कन्या होने के नाते विधुर पिता की देखभाल के लिए वो भी उन के साथ ही रहने लगी। अब इंदिराजी भी राजनीति के केन्द्र मे थीं और निर्णायक नही लेकिन सहायक भूमिका मे तो आ ही गई थीं। इसी मोड पर यह तय हो गया की अब इंदिरा गांधी को भी राजनीति ही करनी है। नेहरू जी के मिजाज के विप रीत इंदिरा गांधी थोड़ा एकाधिकार वादी थीं। १९५९ मे केरल की सरकार गिरा कर उन्होंने यह जता भी दिया था। 

बहरहाल नेहरू जी के काल मे इंदिरा जी सहायक भूमिका मे ही रही और उनके बाद प्रधानमंत्री बने शास्त्रीजी ने भी उन्हें कोई बड़ी भूमिका नही दी। भाग्य इंदिराजी पर मेहरबान हुआ शास्त्री जी की मौत के बाद, जब कामराज की मदद से १९६६ मे वो प्रधानमंत्री बनी। समय पूरी तरह से उनको परास्त करने के लिए कमर कसे हुए था। चीन और पाक से हुए युद्ध से बदहाल देश अनाज की कमी से भी खस्ता हाल था। और भी चुनौतियां थीं। नौ राज्यों मे विपक्ष की सरकार बन चुकी थी और कांग्रेस के खत्म होने की बात होने लगी थी। उन सबका ज़िक्र यहाँ जरूरी नही, जरूरी वो है जो इंदिरा जी ने किया।

१९६६ मे सत्ता मे आने के मात्र आठ साल बाद १९७४ मे ऐटम बम का परीक्षण कर इंदिरा जी ने देश को एक भुखमरे राष्ट्र से शक्तिशाली राष्ट्र मे बदल दिया। इस के पहले १९७१ मे वो पाक से लड़ाई जीत कर बंगला देश बनवा चुकी थीं। इंदिरा जी की और भी तमाम सफलता रही साथ ही १९७१ का आम चुनाव जीत कर वो देश की सबसे शक्तिशाली महिला बन गई, कांग्रेस को भी संजीवनी मिली और वो फिर से पूरे देश पर काबिज हो गई। 

इसी समय इंदिरा जी को अपने तब तक के राजनैतिक जीवन की सबसे बडी चुनौती मिली। १९७४ मे गुजरात से शुरू हुआ आन्दोलन पूरे देश मे फैल गया और उसी समय हाई कोर्ट के एक फैसले ने इंदिरा जी के चुनाव को अमान्य कर दिया। इसी मौक़े पर जय प्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के विरोध मे आंदोलन शुरू किया।

आर एस एस जो १९४७ से ही कांग्रेस के विरोध मे था, उसने भी इस अराजकता मे अवसर देखा और जय प्रकाश जी को पूरा सहयोग दिया, अब एक तरह से जय प्रकाश जी के आन्दोलन की कमान आर एस एस के हाथों मे थी। इंदिराजी का मानना था की आर एस एस की नीतियां देश के लिए घातक हैं , इसलिए उन्होंने आपात काल लगा कर विरोध को कुचल दिया। हालांकि १९७७ का चुनाव इंदिरा जी हार गई। जनता पार्टी की सरकार बनी लेकिन १९८० मे ही इंदिरा जी फिर से चुनाव जीत कर प्रधानमंत्री बनी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता

राजनीति मे रची बसी होने के नाते इंदिरा जी, जय प्रकाश जी की आड़ मे खड़े आर एस एस को पहचान गई और उसे करीब २० साल तक और देश की सत्ता तक पहुंचने से रोक दिया। लेकिन भाग्य पर इंदिरा जी का भी बस नही था। संजय गांधी और फिर खुद इंदिरा जी की मौत ने राजीव गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया। उनके भी असमय काल के गाल मे जाने पर कमान नरसिंह राव को मिली। उन्होंने देश को नई दिशा तो दी लेकिन कई कारणों से कांग्रेस संगठन के लिए कुछ नही कर पाए।

अब टूटा फूटा जैसा भी था संगठन सोनिया गांधी ने संभाला। विरासत मे मिली राजनीति से सोनिया सतर्क थी, उन्हे अपनी कमजोरी पता थी इसलिए हर महत्व पूर्ण मसले पर वे खासा विचार विमर्श करती थीं। इधर कांग्रेस विरोधी मानने लगे थे की पार्टी के दिन पूरे हुए। कुछ उनकी गफ्लत, कुछ इंदिरा जी की विरासत और कुछ सोनिया गांधी की मेहनत, दिल्ली फिर से कांग्रेस की हुई। 

श्री राजीव गाँधी

अपनी कमियो से वाकिफ सोनिया , मनमोहन सिंह को ले आई और एक दशक तक देश ने सम्पन्नता का नया कालखंड देखा।लेकिन इसी कालखंड मे कांग्रेस विरोधी खास तौर से आर एस एस और भाजपा अपना धीरज खो बैठे और उन्होंने १९७५ जैसी चालों से कांग्रेस को हटाने की यो जना बनाई। बदनामी, अफवाह और षड्यंत्र का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल हुआ। साथ मे मनमोहन सिंह की दस साल की सरकार के खिलाफ भी वातावरण था, इन सबसे कैसे निपटा जाये, इसकी सूझ बूझ इंदिरा जी की तरह सोनिया गांधी के पास नही थी। नतीजे मे बेहतर काम के बावजूद कांग्रेस खेत रही और भाजपा साकार दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुई। साथ ही कांग्रेस के नेता भी इतने सुविधा भोगी हो गए थे की आसन्न खतरे को नही भांप पाए। वंशानुगत शासन की बात या उसे किसी चीज के लिए ज़िम्मे दार ठहराने की बात अब बेमानी है क्यों की सभी अब वैसे ही हैं। 

इसी जगह पर रुक कर थोड़ा सोचे १९६७ से आज तक कई बार लगा की अब कांग्रेस खत्म , लेकिन हर बार वह अपनी राख से फिर से जीवित हुई। इसका कारण पार्टी का जन्म स्वतंत्रता संग्राम से होना है, यही वजह है की देश के विकास के लिए इसके पास स मग्र योज ना है साथ ही एक देश भर मे फैला संग ठन भी, भले ही वो आज की तारीख मे कितना कमजोर हो। साथ ही कांग्रेस एक मामले मे और भाग्य शाली है, हर बार विपक्ष अपने बुरे शासन से कांग्रेस को संजीवनी देता है। कांग्रेस से इतर कोई दल आज तक ये नही सीख पाया है की सत्ता मिल जाय तो उसे चलाए कैसे? सत्ता मिलने पर उसके सफल संचालन के बजाय उनका ज़ोर कांग्रेस को गाली देने पर ज्यादा होता है। और यही उसके पतन की बड़ी वजह बनता है।

सरकार के समर्थथकों को जाने दीजिए तो अपने सौ साल के इतिहास के बावजूद आर एस एस देश व्यापी संगठन नही बन पाया है जबकि अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस हर जगह है। अपनी सारी चालाक चालों के बावजूद मोदी सरकार फ्लॉप हो रही है। कांग्रेस का भविष्य क्या होगा ये कहना तो अभी मुश्किल है, लेकिन यह तय है की मोदी सरकार के जाने के साथ ही बहुत कुछ ऐसा होगा जो अभी तक नही हुआ और जिसके आसार दिखने भी लगे हैं।

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