उस लेखक ने आखिरी वक्त में कहा, सलमा मेरा बुलावा आ गया है मुझे हंसते हुए रुख़्सत करो और हॉ, मेरे मरने के फौरन बाद यहां से चली जाना

कृश्न चंदर ख़ुशक़िस्मत लेखक रहे हैं या शायद अकेले उर्दू के लेखक रहे हैं जिन्होंने किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी के दम पर अपना जीवन गुज़ार लिया। उनके हिस्से में 32 कहानी संग्रह, 46 नॉवेल, 15-20 नाटक, कुछ किताबों की एडिटिंग, दो एक फ़िल्में, कुछ के स्क्रीनप्ले डायलॉग और वृहद बच्चों का साहित्य है.

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प्रेमचंद्र और रबीन्द्रनाथ टैगोर के बाद कृश्न चंदर तीसरे भारतीय लेखक हैं जिनकी कहानियों का विदेशी भाषाओं में जमकर अनुवाद हुआ। कृश्न चंदर का जन्म गुजरांवाला, पाकिस्तान में हुआ था. पूत के पांव पालने में ही दिख गए थे. स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही अपने मास्टर पर व्यंग्य लिखकर उन्होंने पिता की मार और कसम खाई कि अब ऐसा नहीं करना है. पर ऐसा नहीं हो पाया।

बच्चे अपनी मां से, नानी से या दादी से रात में ही कहानियां क्यों सुनते हैं, इस सवाल के जवाब में कृश्न चंदर ने कहा था, ‘रात का डर मिटाने के लिए’. पर उन्होंने यह नहीं लिखा कि लिखने वाले किस डर से लिखते हैं? हां, यह ज़रूर कहा था कि उन्होंने क्यों लिखा?

कृश्न चंदर की आपबीती है – ‘बचपन में एक बार मेरे पिता राजा बलदेव सिंह (एक रियासत के राजा) को देखने गए जो बीमार थे, उनके साथ में भी गया. वहां मेरी मुलाकात दो राजकुमारों से हुई, उन्होंने मुझे अपने खिलौने दिखाए और मुझसे पूछा, “डॉक्टर के बेटे! तुम्हारे पास क्या है दिखाने को?” मैंने झेंप कर कहा, ‘कुछ नहीं है’. उन्होंने मेरी जेब टटोलकर उसमें से सफ़ेद हत्थी वाला चाकू निकाल लिया. जब मैंने अपना चाक़ू मांगा तो राजकुमारों ने नहीं दिया. मैंने उन्हें चांटा मार दिया. वो दोनों मुझ पर पिल पड़े और ख़ूब मारा. मेरे रोने पर पिताजी आये और माजरा जानकर उन्होंने मुझे ही चांटा मारते हुए कहा, बदमाश! राजकुमार पर हाथ उठाता है! वह चाकू वापस नहीं मिला।

कृश्न चंदर लिखते हैं, ‘यह तो मुझे बाद में मालूम हुआ कि लोग इसी तरह करते हैं. सफ़ेद हत्थी वाला चाकू, कोई हसीन लड़की, ज़रख़ेज़ ज़मीन का टुकड़ा, सब इसी तरह हथिया लेते हैं. फिर वापस नहीं करते. इसी तरह तो जागीरदारी चलती है. मगर अच्छा नहीं किया इन लोगों ने. दो आने के चाक़ू के लिए इन्होंने मुझे अपना दुश्मन बना लिया. वो सफ़ेद चाक़ू आज तक मेरे दिल में खुबा हुआ है. इसी तरह आज तक मैंने जो कुछ लिखा है वो इसी सफ़ेद चाकू को वापस लेने के लिए लिखा है।

इतना काफ़ी है समझने के लिए कि कृश्न चंदर साम्यवादी लेखक थे और चाकू छीनने वाले पूंजीपति व्यवस्था के मालिक. उन्होंने यह जंग ताज़िन्दगी लड़ी. पर इस लेखक की एक समस्या है. उसके किरदार अक्सर उसी की ज़ुबान ही बोलते हैं. क्या करें! समस्या है तो है. कृश्न चंदर साम्यवाद से इस कदर प्रभावित थे कि 1944 के प्रगतिशील लेखक संघ के अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा,  अब वक़्त आ गया है कि हम लेखक खुल्लमखुल्ला साम्यवाद का प्रोपैगेंडा शुरू कर दें क्यूंकि अब हमारे दो ही रास्ते हैं। निरंतर गतिशील साम्यवादी विचारधारा या निष्क्रिय और निश्चेष्ट मृत्यु।

‘महालक्ष्मी का पुल’ में किरदार सामने नहीं आता. वह एक तरफ़ जहां पुल की एक रेलिंग पर टंगी हुई मटमैली, फटी, बदरंगी साड़ियों के ज़रिये उन्हें पहनने वाली औरतों का कोलाज बनाता है, तो दूसरी रेलिंग पर सूख रही महंगी और चमकदार साड़ी पहनने वालियों का पोर्ट्रेट. वो हमसे समाजवादी बनने को नहीं कहता. बस इतना भर मालूम करने की कोशिश करता है कि हम पुल के किस ओर खड़े हैं? यह पूछना तो ग़लत नहीं कहा सकता! वह ‘चाक़ू न पाने की टीस’ हर सर्वहारा के दिल में है और उसी टीस को कृश्न चंदर ने लिखा है।

कृश्न चंदर ख़ुशक़िस्मत लेखक रहे हैं या शायद अकेले उर्दू के लेखक रहे हैं जिन्होंने किताबों से मिलने वाली रॉयल्टी के दम पर अपना जीवन गुज़ार लिया। उनके हिस्से में 32 कहानी संग्रह, 46 नॉवेल, 15-20 नाटक, कुछ किताबों की एडिटिंग, दो एक फ़िल्में, कुछ के स्क्रीनप्ले डायलॉग और वृहद बच्चों का साहित्य है। प्रेमचंद और रबीन्द्रनाथ ठाकुर के बाद वे ऐसे तीसरे लेखक हैं जिनकी रचनाओं का 16 भारतीय और 65 से अधिक विदेशी भाषाओं में अनुवाद हुआ है. चूंकि वे साम्यवादी थे, इसलिए सोवियत रूस में काफ़ी पसंद किये गये।

जब आठ मार्च 1977 को यह समय पूरा हुआ तो उससे एक रात पहले उन्होंने अपनी पत्नी सलमा सिद्दीकी से कहा, ‘सलमा, नेचर से इतनी जंग करना ठीक नहीं. मेरा बुलावा आ ही गया है तो मुझे मुस्कुराते हुए रूखसत करो और मेरे मरने के फ़ौरन बाद यहां से चली जाना. रोने-धोने की ज़रूरत नहीं. यहां और भी कई दिल के मरीज़ हैं. मुमकिन है, रोने धोने से उन्हें तकलीफ़ हो. मैं जानता हूं कि मेरी ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म हो चुका है और इस बात पर तुम फूहड़ता से मातम नहीं करोगी।

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