कलाल रहेंगे तो कला रहेगी तभी दीप बनेंगे तभी तो दीपावली मनेगी!

मिट्टी को चाक पर काटकर उसे अलग अलग स्वरूप देना इस जाति की विशेष कला हैं। मुख्य रूप से मिट्टी के बर्तन, खिलौने, दिया, वगैरह बेचकर अपनी जीविका चलाते हैं। इन जातियों में भी कई सारे समूह हैं।राणा कुम्हार, तेलंगी, कुमावत अदि।

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दीपावली का त्योहार कलाल की जिंदगी में रौशनी लाने का केवल एक जरिया नहीं बल्कि जीवन हैं प्रजापति/कुम्हार जाति का इतिहास बहुत पुराना हैं। इस जाति को भांडे भी कहते हैं।जिसका मतलब होता हैं मिट्टी से बर्तन बनाने वाला।कई जगह इस जाति को कलाल भी कहते हैं। मिट्टी को चाक पर काटकर उसे अलग अलग स्वरूप देना इस जाति की विशेष कला हैं। मुख्य रूप से मिट्टी के बर्तन, खिलौने, दिया, वगैरह बेचकर अपनी जीविका चलाते हैं। इन जातियों में भी कई सारे समूह हैं।राणा कुम्हार, तेलंगी, कुमावत अदि।

महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान, बिहार, उतरप्रदेश, तथा हिमाचल प्रदेश में इन जातियों की खासी बहुलता हैं। मिट्टी सें बर्तन बनाने वाले इस समाज की कला आज दम तोड़ रही हैं।बाजार में प्लास्टिक के बर्तन आ जाने सें देश के एक कला की हत्या हो रही हैं। आज इस समाज के पास हुनर होते हुए भी बेहुनर हैं। स्थिति ऐसी हैं की आज वो वक्त की रोटी भी नहीं जुटा पा रहे हैं। दूसरों के घरों में उजाला करने वालों की जिंदगी में आज अंधेरा हैं।

सरकार के साथ साथ समाज के लोगों को इस बात पर खासतौर पर ध्यान देने की जरुरत हैं। प्लास्टिक के बर्तन खरीदने के बजाय हमें इस कला के हत्या होने सें बचाना चाहिये इसका संरक्षण करना चाहिए । पर्यावरण को सुरक्षित रखने में इस समाज का अहम योगदान हैं लेकिन जिस तरह से यह कला समाप्त हो रही हैं। उससे लाखों भारतीय बेरोजगार तो हो ही रहे हैं साथ ही साथ इस कला के विलुप्त होने का खतरा भी मंडरा रहा है अगर इसी तरह की स्थिती रही तो आनेवाले दिनों में इस स्वदेशी कला की बस यादें रह जायेंगी। 

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