हिन्दी बचेगी तभी तो हिन्दी बढ़ेगी! क्यों ना भैया साहब के पत्र के आईने में मनाया जाये हिन्दी दिवस

हिन्दी दिवस के अवसर पर आप-हम खुद सोचें, क्या हमने हिंदी को बचाने या बढ़ाने में ऐसा कोई योगदान दिया है? किसी एक को तो छोड़िए क्या खुद अपने को हिंदी के अधिकाधिक उपयोग के लिए प्रेरित किया है? जवाब अगर न में आए तो अब और आज से खुद हिंदी को अपने व्यवहार में ढालिए। पढ़िये वरिष्ठ पत्रकार गौरव अवस्थी का लेख।

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लखनऊ / रायबरेली / उन्नाव। हिंदी दिवस मनाने वालों को आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की विरासत संभालने वाले यानी सरस्वती पत्रिका के संपादक रहे प्रकांड विद्वान, हिंदी प्रेमी एवं साहित्यकार पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी “भैया साहब” का यह पत्र जरूर पढ़ना चाहिए। पत्र उनकी हस्तलिपि में नहीं है लेकिन हस्ताक्षर उनके अपने हैं।

इतिहास गवाह है कि सरस्वती पत्रिका का 1980 तक संपादन भैया जी ने ही किया। यह पत्र 1988 का लिखा हुआ है, जिसमें वह हिंदी को बचाने और बढ़ाने के लिए कहानी-लेख-कविता यानी साहित्य की तमाम विधाओं की बात न करते हुए हिंदी को व्यवहार में लाने की वकालत कर रहे हैं।

बात हमारे छात्र जीवन की है। तब हमारी उम्र महज 22 बरस की रही होगी। पिताजी (पंडित कमला शंकर अवस्थी) ने 1952 में भारती परिषद नाम की संस्था गठित कर कवि सम्मेलन का आयोजन उसी वर्ष से प्रारंभ किया था। पिताजी की उस परंपरा को हमने आगे बढ़ाने की एक असफल कोशिश भारत भारती नाम से युवाओं की एक संस्था बनाकर हिंदी की सेवा का काम करने की सोची थी।

उसी क्रम में हम अपनी नवोदित संस्था के उद्घाटन समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर भैया साहब को आमंत्रित करने लखनऊ उनके खुर्शेद बाग स्थित आवास पर गए थे। 26 अक्टूबर 1988 का भैया जी का यह पत्र ही हमारे उनके पास पहुंचने की तारीख याद दिलाता है।

हमें आज भी याद है, उम्र के उस पड़ाव पर भी उनका प्रभावशाली व्यक्तित्व। हाथों में कंपन की वजह से उन्होंने पत्र लिखने बंद कर दिए थे। हमारे निवेदन पर उन्होंने अपने सहयोगी से यह पत्र बोलकर लिखवाया था और नीचे हस्ताक्षर खुद किए थे। हिंदी सेवा के संकल्प को लेकर पहुंचे इस युवा को भैया साहब ने यह पत्र लिखकर आशीष ही नहीं दिया था बल्कि हिंदी सेवा की असली राह दिखाई/बताई थी।

20 वर्षों से अधिक सरस्वती पत्रिका का संपादन करके हिंदी साहित्य में अपनी एक अलग छाप छोड़ने वाले भैया जी ने पत्र के माध्यम से युवाओं को रास्ता दिखाया और बताया था कि हिंदी साहित्य की रुचिकर विधाओं- कहानी, निबंध, लेख, कविताओं से नहीं व्यवहार से बचेगी।

33 वर्ष पहले की उनकी वह चिंता आज हिंदी को बचाने और बढ़ाने का एकमात्र उपाय ही नजर आती है। 100 फ़ीसदी सच है कि अगर हिंदी व्यवहार में नहीं होगी तो कितना और कैसा भी साहित्य रच दिया जाए? अगर व्यवहार से बाहर हो गई तो हिंदी बचेगी नहीं। हिंदी बची है तो बोलने वालों से, लिखने वालों का नंबर बाद में। लिखना एक संस्कार है और बोलना स्वभाव।

हम तो कहेंगे भैया साहब का पूरा पत्र पढ़िए, गुनिए और समझने की कोशिश कीजिए! अगर हिंदी को बचाना है? हिंदी बचेगी तभी तो बढ़ेगी! उस न सही इस हिंदी दिवस पर ही हमें संकल्प लेना चाहिए कि पत्र-व्यवहार हिंदी में करेंगे, हस्ताक्षर हिंदी में बनायेंगे घरों की नाम पट्टीका हिंदी में लिखवायेंगे। दूसरों को हिंदी के अधिक से अधिक प्रयोग करने के लिए प्रेरित करेंगे। बच्चों के लिए अंताक्षरी सुलेख आदि प्रतियोगिताएं करायेंगे।

आप-हम खुद सोचें, क्या हमने हिंदी को बचाने या बढ़ाने में ऐसा कोई योगदान दिया है? किसी एक को तो छोड़िए क्या खुद अपने को हिंदी के अधिकाधिक उपयोग के लिए प्रेरित किया है? जवाब अगर न में आए तो अब और आज से खुद हिंदी को अपने व्यवहार में ढालिए।

ज्यादा दूर की न सोचे। अपने बच्चों और आसपास के लोगों को हिंदी में व्यवहार के प्रति सचेत करें। अगर हमने हिंदी को बचाने और बढ़ाने में ऐसा कुछ किया तो यकीन मानिए हमारे हिंदी के पूर्वज हम पर गर्व करेंगे अन्यथा! हम लकीर देखने वाले तो कहलाएंगे ही।

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  1. हिन्दी दिवस के अवसर पर उत्कृष्ट लेख प्रकाशित करने के लिए लेखक और न्यूज डॉन के फीचर डेस्क विशेषकर ज़ीनत को बधाई।

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