सिर्फ 22 घंटे में ही चोर पकड़ा जाता है, बशर्ते!

गौर करें तो असलियत कुछ और ही लगती है यह गुण गाय पट्टी में पलनेवाले डग्गामारों को नहीं पता चलेगा। मेरी भी रिहाइश वहीं की है, नफ़ासत भरे लखनऊ की, आडम्बर और फिजूलखर्ची गुजरात में नापसंद है, हेय है

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सिर्फ बाइस घंटों में चोर पकड़ा जाय ! दिल्ली पुलिस का कीर्तिमान ही कहलायेगा, मोदी हैं तो मुमकिन है। फिर शिकार हुई दमयंती प्रधानमन्त्री की कुटुम्बी जो ठहरी मगर आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता राघव चड्ढा ने जड़ ही दिया कि आम हिन्दुस्तानी कैसे सुरक्षित रहेगा जब नरेंद्र मोदी की भतीजी सरे आम लुट जाये हालाँकि दमयंती मोदी के सीने पर साइनबोर्ड तो टंगा नहीं था कि वह कौन है? या कि उनका डीएनए पीएम मोदी से मिलता है प्रवक्ता महाशय भूल गये कि मौका-ए-वारदात केजरीवाल के मुख्यमंत्री आवास के समीप था सिविल लाइंस पर, जहाँ गार्ड भी थे। 


अब सभी अखबारी रपट पढ़कर दो गमनीय पहलू उभरते दिखे प्रथम तो यह कि वीआईपी के स्वजनों को नियमानुसार विशेष सुरक्षा मिलती हैै  मसलन दिवंगत राजीव गाँधी के नाती रेहान वाड्रा को भी। तो फिर अपने सगे भाई की दुहिता को पीएम क्यों नहीं दिलवा पाये?

नई दिल्ली के बेशकीमती भूभाग के हजारों एकड़ पर निर्मित तीन आलीशान बंगले, लाखों रूपये के किराये वाले, फोकट में एकाकी माँ, अविवाहित बेटा और बेटी-दामाद को आवंटित हैं तो फिर सगी भतीजी चांदनी चौक के संकरे गलियों वाले पुराने गुजराती समिति के साधारण अतिथि गृह में पांच सौ रुपल्ली रोज के भाड़े पर एक कमरे में अपने पति और दो पुत्रियों के साथ क्यों रहे ? शायद इसलिए कि चाणक्यपुरी में निर्मित गर्वी गुजरात और भवन का किराया पांच हजार रूपये है। कौन चुकाता ? मितव्ययिता अथवा असमर्थता ? महत्वपूर्ण पहलू है कि पति विवेक और दोनों बेटियों के साथ एक तीन पहियों वाली ऑटो रिक्शा में दमयंती सवार थी वे दिल्ली स्टेशन पर अमृतसर से वापसी पर रेल से उतरी थीं लुटेरे उनके पर्स को झपट्टा मारकर ले गये। धउसमें था क्या ? मात्र छप्पन हजार नकद, दो फोन और कुछ कागज आदि। न गहने, न बड़ी नगदी, चोर जरूर व्यथित हुए होंगे कि किन कंगालों से पाला पड़ा। 

याद आ गए कि पीवी नरसिम्हा राव, जो केवल एक ही लाभ अपने बड़े बेटे को पहुंचा पाए थे| मात्र छोटा सा पेट्रोल पम्प था, प्रधान मंत्री के बयान पर अरबों रुपयों का वारा-न्यारा हो जाता है मगर नरसिम्हा राव दरिद्र विप्र निकले  हालाँकि रहे कांग्रेसी पीएम। गौर करें तो असलियत कुछ और ही लगती है यह गुण गाय पट्टी में पलनेवाले डग्गामारों को नहीं पता चलेगा। मेरी भी रिहाइश वहीं की है, नफ़ासत भरे लखनऊ की, आडम्बर और फिजूलखर्ची गुजरात में नापसंद है, हेय है। अहमदाबाद में एक बार मैंने राह चलते पूछा की कालूपुर (स्टेशन) जाने के लिए टैक्सी या ऑटो कहाँ मिलेगा ? उनका जवाब था “आपके पास सामान तो है नहीं वहाँ से बस मिल जाएगी, अठन्नी में पहुंचा देगी” तब नया नया मैं मुंबई से टाइम्स ऑफ़ इंडिया के नए गुजरात में स्थानांतरित होकर अहमदाबाद आया था। 

एक निजी घटना का उल्लेख कर दूं| आर्थिक रपट लिखने के लिए उद्योगपति कस्तूरभाई लालभाई से साक्षात्कार हेतु उनके बंगले पर गया कुछ देर बाद एक व्यक्ति बैठक में आया  दिखने में अमीनाबाद (लखनऊ) का मामूली पेढीवाला मुंशी लग रहा था सफेद टोपी, ऊँची धोती, आधी बाहीं वाला कुर्ता (तनसुख) पहने बताया कि वे ही कस्तूर भाई थे समूचा कनाट प्लेस खरीदने की हैसियत रखते थे। 

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