फिल्मी दुनिया कैसे बनी सत्ता की सीढ़ी

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    देश की सियासत के इतिहास में राजनीति में कैसे बॉलीवुड स्टार्स, फिल्मों और डॉक्यूमेंट्री का इस्तेमाल किया गया है इस पर मैंने कुछ पोस्ट लिखे थे… कई लोगों ने सवाल उठाया कि अगर नेहरू ने किसी गलत प्रथा, रिवाज़ या रवायत की शुरुआत की तो फिर उसे आज क्यों दोहराया जा रहा है ??? चलिए… इस बात से मैं सहमत हो जाता हूं… लेकिन मेरा सवाल दूसरा है… आज जो कुछ भी हो रहा है उसे लेकर बुद्धिजीवी ऐसा माहौल क्यों बनाते हैं कि ये देश में पहली बार ही हो रहा है ??? क्यों देश की जनता को नकारात्मक संदेश दिया जाता है कि लोकतंत्र खतरे में है और चुनावी संस्कारों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं??? लेकिन ये कुटिल लोग बहुत चालाकी से ये नहीं बताते की आखिर इसकी शुरुआत किसने की थी???

    भैया मैं तो सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि इस देश में हमेशा चुनावों में और सियासत में बॉलीवुड का इस्तेमाल कर जनता तक अपनी विचारधारा पहुंचाने की कोशिश की गई है और इसकी शुरुआत नेहरू जी ने की थी… आज मोदी कुछ गलत कर रहे हैं तो बुद्धिजीवी उनको उनकी गलती बताने के लिए आज़ाद है… ठीक उसी तरह से मुझे भी ये अधिकार है कि मैं लोगों को ये बताऊं कि इस देश में किस नेता ने कब और कैसे गलत सियासी रिवाज़ों का बीज बोया… और कैसे आज ये सब हमारे चुनावी संस्कार का हिस्सा बन गया है।

    पंडित जवाहर लाल नेहरू

    मैं कई बार सोचता हूं कि 1951 में भी अगर देश की अदालतें और चुनाव आयोग इतना सख्त होता तो उसी साल से देश में चुनावी प्रोपेगेंडा, चुनाव में फिल्मों और हीरो-हीरोइन के इस्तेमाल पर बैन लग जाता और निष्पक्ष चुनाव की नींव पड़ जाती… लेकिन ऐसा हुआ नहीं… दरअसल इस मुद्दे पर सारी अदालतें और चुनाव आयोग तो 2019 में जाकर जगे हैं… खैर 1951 चुनावी साल था… चौंकिये मत… ज्यादातर लोग समझते हैं कि देश का पहला आम चुनाव 1952 में हुआ था लेकिन हकीकत में मतदान की शुरुआत 25 अक्टूबर 1951 को ही हो गई थी और पूरी चुनावी प्रक्रिया खत्म हुई 21 फरवरी 1952 को… यानि 1951 चुनावी साल था और इसी साल फिल्म रीलीज हुई जिसका नाम था “आंदोलन”… ये फिल्म आजादी के आंदोलन पर आधारित थी और इस फिल्म में पंडित जवाहर लाल नेहरू के कई भाषण थे, एक दम नायक की तरह उन्हे पेश किया गया था, वो तो उस ज़माने में रौशन सेठ पैदा नहीं हुए थे, वरना उनसे एक्टिंग भी करवा ली जाती… खैर… न तो इस फिल्म पर रोक लगी और न इस एतिहासिक सच की जानकारी आज किसी को है।

    दरअसल हर दौर में प्रधानमंत्रियों और सरकारों ने बॉलीवुड और उसके सितारों का साथ लिया है… और इसकी शुरुआत की थी उस प्राइम मिनिस्टर मिस्टर नेहरू ने जिनके सामने कभी मजबूत विपक्ष था ही नहीं… वो चाहते तो अपनी पार्टी कांग्रेस को हर चुनाव आसानी से जीता सकते थे लेकिन फिर भी उन्होने हमेशा आसान रास्ता चुना, और वो आसान रास्ता था बॉलीवुड के इस्तेमाल का… दिलीप कुमार और बलराज साहनी जैसे स्टार्स से पार्टी का प्रचार करवाया (इस बारे में मेरा पिछला पोस्ट पढ़ सकते हैं) तो राज कपूर के साथ मिलकर अपनी समाजवादी विचारधारा को पूरे भारत में पहुंचाने की कोशिश की… राज कपूर ने नेहरू के कहने पर कई फिल्में बनाई… लेकिन 60 के दशक तक नेहरू के सोशलिज्म का सपना डगमगाने लगा तो राजकपूर ने भी अलग राह पकड़ ली और वो सत्तर के दशक में “मेरा नाम जोकर” हो गए।

    Portrait of of the Indian Interim Government; (L-R) Sarat Chandra Bose, Jagjivan Ram, Rajendra Prasad, Sardar Vallabhai Patel, Asaf Ali, Pandit Jawaharlal Nehru and Syed Ali Zaheer, outside the Council Room in the Viceroy’s House in New Delhi, September 2nd 1946. (Photo by Keystone/Hulton Archive/Getty Images)

    फिर आया लाल बहादुर शास्त्री का दौर… उन्होने जय जवान, जय किसान का नारा दिया… मनोज कुमार उनके करीबी थे, शास्त्री जी के कहने पर उन्होने सुपर हिट फिल्म उपकार (मेरे देश की धरती सोना उगले) बनाई… फिल्म उपकार की थीम शास्त्री जी के नारे “जय जवान-जय किसान” पर आधारित थी… हालांकि उपकार 1967 में रीलीज़ हुई, वो भी चुनावी साल था… चौथा आम चुनाव हो रहा था… लेकिन शास्त्री जी का निधन 1966 में चुनाव से एक साल पहले ही हो गया था… कई बार सोचता हूं कि अगर शास्त्री जी 1967 के चुनाव के दौरान जिंदा होते और आज का चुनाव आयोग और अदालतें होती तो क्या ‘उपकार’ पर भी बैन लगा दिया जाता??? क्या उस वक्त के बुद्धीजीवी ये तर्क देते कि जिस नारे “जय जवान-जय किसान” पर ये फिल्म बनी है वो नारा तो प्रधानमंत्री ने दिया है, इस फिल्म पर बैन लगाओ।

    उपकार एक महान फिल्म थी और शास्त्री जी की महानता, ईमानदारी और सादगी पर दुनिया का कोई भी शख्स सवाल नहीं कर सकता है। लेकिन मुझे आज ये बड़ा अजीब लगता है जब लोगों ने सर्जिकल स्ट्राइक पर बनी फिल्म ‘उरी’ पर सवाल उठाए… उसे मोदी सरकार का चुनावी प्रोपेगेंडा करार दिया गया… जबकि ‘उपकार’ अगर 1965 के युद्ध पर बनी थी तो ‘उरी’ भी उसी तरह की एक वॉर मूवी ही थी… हालांकि ये भी सच है कि ‘उरी’ उपकार के सामने कहीं नहीं ठहरती है।

    श्रीमती इन्दिरा गाँधी

    फिर आया इंदिरा गांधी का दौर… जानते हैं जो ओरिजनल शोले बनी थी उसके अंत में गब्बर को ठाकुर जान से मार देता है… लेकिन ओरिजनल शोले का The End बदल दिया गया… ठाकुर गब्बर को जिंदा छोड़ देता है और पुलिस के हवाले कर देता है… जानते हैं क्यों??? क्योंकि उस वक्त इंदिरा गांधी के सौजन्य से देश में इमरजेंसी लगी हुई थी… और इंदिरा सरकार नहीं चाहती थी कि किसी फिल्म के माध्यम से ये संदेश जाए कि जनता कानून को अपने हाथ में ले सकती है… अगली बार जब शोले देखें तो आखिरी सीन पर खास ध्यान दें… इस सीन में जब ठाकुर गब्बर के गले को अपने जूते से दबाने ही वाला होता है तो अचानक ओम शिवपुरी (पुलिस इंस्पेक्टर) की एंट्री होती है और वो ठाकुर को कानून का पालन करने का एक लंबा चौड़ा भाषण झाड़ता है… दरअसल ये सीन शोले पर ज़बरदस्ती लादा गया था।

    इस तथ्य की जानकारी और सच्चाई के लिए आप प्रसिद्ध लेखिका अनुपमा चोपड़ा की शोले पर लिखी किताब ‘शोले द मेकिंग ऑफ़ ए क्लासिक’ पढ़ सकते हैं, इसमें में वो लिखती हैं कि – “सेंसर बोर्ड से परेशान होकर एक समय रमेश सिप्पी ने फ़िल्म से अपना नाम हटाने का भी मन बनाया… वकील रहे जीपी सिप्पी ने बेटे को समझाया कि इमरजेंसी में कोर्ट जाने का कोई फ़ायदा नहीं… सरकार की बात मान जाओ।” फिर इसी किताब में अनुपमा चोपड़ा आगे लिखती हैं कि – “15 अगस्त 1975 को शोले रिलीज़ होने वाली थी… इससे पहले, जुलाई के आखिरी हफ्ते में संजीव कुमार सोवियत संघ में थे… जब सरकार और सेंसर बोर्ड का दवाब बढ़ गया तो संजीव कुमार भारत लौटे और शोले का आख़िरी सीन दोबारा शूट हुआ, डबिंग और मिक्सिंग हुई।” इसी किताब में अनुपमा चोपड़ा ने य़े भी लिखा है कि – “शोले फिल्म से सेंसर ने रामलाल का वो सीन भी काट दिया जिसमें वो ज़ोर-ज़ोर से ठाकुर के उन जूतों में कील ठोकता है जिससे ठाकुर गब्बर को मारने वाला था, क्योंकि रामलाल की आँखों में विद्रोह की झलक थी… इस तरह इमरजेंसी के दौरान शोले तैयार हुई लेकिन ये वो फ़िल्म नहीं थी जो रमेश सिप्पी बनाना चाहते थे।”

    श्री राजीव गाँधी

    खैर फिर दौर आया राजीव गांधी का… साथ में थे अमिताभ बच्चन… पहले तो दिल्ली एशियाड 1982 में ग्लैमर का तड़का लगाने के लिए राजीव ने अमिताभ का भरपूर साथ लिया… और फिर 1984 में एक फिल्म आई इंकलाब… जिसमें अमिताभ ने एक ऐसे किरदार को निभाया जो मजबूरी में राजनीति में आता है और फिर पूरी प्लानिंग के साथ राजनीति की गंदगी साफ कर देता है… एकदम “मिस्टर क्लीन” की तरह… बाद में तो खैर अमिताभ ने चुनाव ही लड़ डाला… लेकिन राजीव के साथ उनकी सियासी पारी लंबी नहीं चली और 1986-87 में उन्होने राजनीति को अलविदा कह दिया।

    साल गुजरते रहे और फिर दौर आया मोदी का… अक्षय कुमार ने मोदी के स्वच्छता अभियान पर दो फिल्मों में काम किया… पहली थी टॉयलेट-एक प्रेम कथा और दूसरी थी – पेडमैन… जिसने भी ये फिल्में देखी हैं वो ये बताए कि इन दोनों फिल्मों में क्या गलत था?

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