
जेट एयरवेज़, किंगफ़िशर एयरलाइंस, सहारा एयरलाइंस जैसी निजी कम्पनियां अपनी बेहतरीन क्षमता और भारी मुनाफ़े के कारण ही तो बन्द हो गयी एयर इण्डिया जैसी सरकारी कम्पनी तो समाजकल्याण विभाग के वज़ीफे पर जिंदा है एयरसेल, रिलायंस कम्युनिकेशन, टाटा डोकोमो भी मारे खुशी के बन्द कर दी गईं मुझे याद है कि जब भारत में पहली बार मोबाइल सेवा ऊषाफ़ोन और एस्सार लेकर आई थीं, तब इनकमिंग कॉल ₹8 प्रति मिनट और आउटगोइंग कॉल ₹16 प्रति मिनट थी लोग कॉल आने पर काट कर नज़दीक के BSNL लैंडलाइन से फ़ोन कर लेते थे उस वक़्त BSNL के लाइनमैन का भी भौकाल था, बिना सौ रुपया दिए लाइन ठीक नहीं होती थी लेकिन तभी वही BSNL मोबाइल सेवा ले आया और कुछ वर्षों में स्थिति ये हो गई कि सब्जीवाला और कबाड़ीवाला भी मोबाइल रखने लगे BSNL के कारण मोबाइल स्टेटस सिम्बल न रहा… फ़िर सबसे सस्ता ब्रॉडबैंड भी BSNL ही लाया… आज भी घाटेवाले पहाड़ी अथवा जंगली दुर्गम इलाकों में मोबाइल सेवा की ज़िम्मेदारी BSNL की है।
याद कीजिये लाल इमली और धारीवाल के ऊनी कपड़ों को, शायद उतनी उम्दा क्वालिटी के टिकाऊ कपड़े आज कोई कम्पनी नहीं बनाती तो इतनी बढ़िया क़्वालिटी बनाने वाले मज़दूर एकाएक कैसे हरामख़ोर हो गए और ये दोनों सरकारी कम्पनियां बिक गईं याद कीजिये डाला, चुर्क और चुनार की उत्कृष्ट सीमेंट बनाने वाली कम्पनियां एकाएक बर्बाद होकर बिक कैसे गईं याद कीजिये जापान और स्विट्ज़रलैंड से भी बेहतर और सस्ती घड़ियां बनाने वाली HMT एकाएक क्यूँ बन्द हो गई याद करिये बेहतरीन टिकाऊ टीवी बनाने वाली सरकारी अपट्रॉन और ECtv क्यूँ फेल हो गईं, जबकि ECtv तो बुकिंग से मिलता था डंकन जैसी खाद फैक्टरी हो या सरकारी चीनी मिलें हो, एकाएक अर्श से नीचे जाकर फ़र्श पर क्यूँ आ गईं और फ़िर टकामोल निजी हाथों में क्यूँ बिक गईं लम्बी फेहरिस्त है।
भारत में कार को जनसामान्य तक पहुंचाने वाली मारुति तो आज भी सबसे ज़्यादा बिकने वाली भारतीय कार है तो फ़िर क्यूँ पहले 26% विनिवेश किया गया, फ़िर 49%, फ़िर 51% और अंत में अब मारुति 100% जापानी कम्पनी सुजुकी की मिल्कियत है दरअसल चलती फिरती बेहतरीन सार्वजनिक कम्पनियों में नेता-नौकरशाह-कॉरपोरेट का सम्मिलित खेल जारी है सत्ता और राजनेता पहले असहयोग और बंदिशों के जरिये सार्वजनिक क्षेत्र को पंगु बनाते हैं फ़िर कॉरपोरेट को उपकृत करते हुए उसी क्षेत्र में समानान्तर निजी कंपनियों पर सरकारी कृपा बरसती है ख़राब प्रबंधन और निर्णयों पर सरकारी अंकुश होने से वो सरकारी कम्पनी घाटे की ओर सरकती जाती है फ़िर सरकार कुछ दिन उसे उबारने का नाटक करती है लेकिन कुछ प्रभावी नहीं करती और फ़िर कंपनी को किसी निजी उद्योगपति को कौड़ियों में बेचने का बहाना मिल जाता है इस दौरान जनता में उस कंपनी की छवि इतनी धूमिल हो चुकी होती है कि वह निजीकरण को ही सही उपचार और नियति मानती है सच तो यह है कि अब देश की तमाम सरकारें कॉरपोरेट के इशारों पर बनती और चलती हैं जनता तो भुक्तभोगी तमाशबीन भर है।