कहानी है 1962 के रक्षा मंत्री यानी डिफेंस मिनिस्टर कृष्ण मेनन और चीन से मोर्चा लेने वाले लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल की है. भारत की इन “महान आत्माओं” का जिक्र मैं इसलिए कर रहा हूं ताकि आप समझें कि जब हम चीन से हारे तो देश की हिफाजत कैसे लोगों के हाथों में थी। इन लोगों की योग्यता सिर्फ इतनी थी कि ये सब नेहरू के चापलूस थे और इसी के बल पर ये देश के इतने ऊंचे ओहदों पर पहुंच गए थे।
इनके बारे में लेख में दी गई हर सूचना, हर तथ्य प्रामाणिक स्रोतों पर आधारित है. क्योंकि जो तथ्य मैं इस लेख में लिखने जा रहा हूं नई पीढ़ी को बेहद अविश्वसनीय लग सकती है। क्योंकि ‘कामरेड’ कृष्ण मेनन ऐसे रक्षा मंत्री थे कि चीनी सेना लद्दाख सरहद पर कब्जा किए बैठी थी और वे पाकिस्तान की सीमा पर सैनिक सजा रहे थे. क्योंकि उनकी गहरी मान्यता थी कि ‘साम्राज्यवाद’ विरोधी चीन भारत पर कभी हमला नहीं कर सकता।
इसी तरह एक दर्जन से ज्यादा योग्य सेना अफसरों को ‘लांघ’ कर लेफ्टिनेंट जनरल बने बीएम कौल अकेले ऐसे जनरल थे जिनकी फौज सीमा पर चीनियों से लोहा ले रही थी जिसे वह नई दिल्ली के अपने आवास में बिस्तर पर लेटे उन्हें आर्डर दे रहे थे। ये युद्ध था या कोई मजाक। आप खुद फैसला कीजिए।
तो इस किस्से को शुरू से शुरू करते हैं कृष्ण मेनन से, ये जनाब इस देश के अकेले रक्षा मंत्री थे, जिनकी नेतृत्व में आजाद भारत पहली बार किसी देश से जंग हार गया। ये अकेली ऐसी जंग थी जिसमें भारत की सेना नहीं हारी थी बल्कि देश के दंभी, चाटुकार राजनेताओं और कूटनीतिज्ञों की टोली ने चीन के सामने घुटने टेक कर देश को कलंकित किया था।
कृष्ण मेनन का शुरू में भारत की सक्रिय राजनीति से कोई लेना देना नहीं था। न देश की आम जनता से उनका कोई दूर दूर तक कोई नाता था और न ही देश की आजादी की लड़ाई से। उनकी काबिलियत सिर्फ इतनी थी कि वे नेहरू के पुराने दोस्त थे. पढ़ने लिखने वाले आदमी थी.फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते थे। नेहरूजी साहित्य प्रेमी थे, लेखक थे और मेनन लंदन में रहकर उनके लिखे को सारी दुनिया में प्रचारित प्रसारित करते. चाहे वह ‘ग्लिंप्सेज ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ हो या ‘डिस्कवरी आफ इंडिया’ या उनकी ‘एन ऑटोबायोग्राफी’ हो। जब देश आजाद हुआ तो नेहरूजी ने ‘पुरस्कार स्वरूप’ मेनन को लंदन में ही भारत का हाई कमीश्नर बना दिया।
मशहूर लेखक पत्रकार खुशवंत सिंह ने मेनन के साथ लंदन में काम किया था। वे उनके बॉस थे. अपनी आत्मकथा में खुशवंत सिंह उनके बारे में अपना फर्स्ट हैंड अनुभव लिखते हैं-“कालेज के दिनों से कृष्ण मेनन के साथ मेरी थोड़ी सी मुलाकात हुई थी. उनमें मुझे प्रतिभा के कोई आसार नहीं दिखाई दिए थे. वह एक बदमिजाज बेरिस्टर थे जिनके पास कोई काम धंधा नहीं था। वे अपनी शक्तियों का इस्तेमाल इंडिया लीग को बढ़ाने में करते थे या फिर नेहरूजी की जी हुजूरी में। उनके हाई कमीश्नर बनने पर न भारत के लोग खुश हुए थे न लंदन में रहने वाले हिन्दुस्तानियों ने खुशी जाहिर की. इस नियक्ति को सरासर पक्षपात माना जा रहा था. (Truth, Love and a Little Malice by Khushwant Singh)”
मेनन का मिजाज पहले ही गर्म था। वह और अक्खड़ हो गया. वे लंदन में ये बताने में बिलकुल नहीं चूकते कि इंडिया का प्राइम मिनिस्टर उनका लंगोटिया यार है। मेनन लंदन से लौटे तो नेहरू ने उन्हें बिना विभाग दिए कैबिनेट का मंत्री बना दिया. जैसाकि यूपीए-1 में मनमोहन सिंह डिप्लोमेट शशि थरूर को अपनी कैबिनेट में मंत्री बनाना चाहते थे पर नहीं बना सके। कैबिनेट मंत्री बनकर मेनन भारत के” घुमंतु राजदूत” बन गए. कभी वे यूएन में भारत का प्रतिनिधित्व करते कभी जिनेवा में। यानी सरकारी खर्च पर सैर सपाटा और मौज मस्ती।
जबकि उन पर जिम्मेदारी थी कि वह नए नए आजाद हुए भारत के पक्ष में दुनिया में माहौल बनाएं. और भारत की छवि चमकाएं. लेकिन ये साहब दुनिया में “चीन की छवि को चमकाने” में मशगूल थे ताकि यूएन की सुरक्षा परिषद में चीन को स्थायी सदस्यता मिल जाए. भारत के इस चीन प्रेमी रवैए से अमेरिका नाराज था। और मेनन दुनिया में ये प्रचार कर रहे थे कि ‘दुनिया में नेहरू ही ऐसे चैम्पियन हैं जो अमेरिका को चुनौती दे सकते हैं.’
1957 के चुनाव में उन्हें कांग्रेस ने मुम्बई से टिकट दिया और वे चुनाव जीत गए. नेहरू ने उन्हें देश का रक्षा मंत्री बना दिया। सच पूछिए तो मेनन के रक्षा मंत्री बनने से देश को थोड़ी राहत मिली थी। क्योंकि उनसे पहले वाले रक्षा मंत्री कैलास नाथ काटजू वकील चाहे कितने धकड़ हों पर थे बहुत ढीले ढाले।
आप ठीक समझ रहे हैं ये वही काटजू थे जिनके बड़बोले नाती सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज मार्कंडेय काटजू हैं. और नातिन हैं तिलोत्तिमा मुखर्जी। जो राजनीति की दुनिया के ‘सदाबहार आशिक’ शशि थरूर का ‘पहला प्यार और पहली पत्नी’ रह चुकी हैं. आधी बंगाली-आधी कश्मीरी तिलोत्तमा उम्र में थरूर बड़ी थी. वह भी थरूर की तरह सुंदर और इंटेलीजेंट हैं. और इन दिनों वह अमेरिका की न्यूर्याक यूनिवर्सिटी में प्रोफसर हैं।
खैर, बात यहां कृष्ण मेनन की हो रही थी. रक्षा मंत्री बनते ही उनका सीधा एनकाउंटर हुआ सेनाध्यक्ष जनरल केएस थिम्मैया से. थिम्मैया स्मार्ट व्यक्तित्व के स्वामी थे. कद छह फुट तीन इंच. उनके पिता असम टी गार्डन के मालिक थे। थिम्मैया ब्रिटिश फौजी अफसर थे। इलाहाबाद में उनकी पोस्टिंग थी. सिविल लाइन्स के एक सिनेमा घर से बावर्दी निकलते वक्त एक बुजुर्गवार ने उनसे पूछ लिया फिरंगी सेना की वर्दी में कैसा लगता है? थिम्मैया ने छूटते कहा-‘HOT’.
वे बुजुर्ग जवाहरलाल के पिता मोतीलाल नेहरू थे. दोनों में दोस्ती हो गई. थिम्मैया भी आजादी की लड़ाई में कूदना चाहते थे लेकिन मोतीलालजी ने मना कर दिया. कहा-‘आजादी मिलने के बाद तुम्हारे जैसे अफसरों को देश को जरूरत होगी.’ थिम्मैया ने ब्रिटिश सेना में खूब कमाल किए. कश्मीर में पाकिस्तानी कबीलाईयों को खदड़ने वाले यही जनरल थिम्मैया थे।
लेकिन अब ऐसे विराट व्यक्तित्व के आगे चापलूसी से आगे बढ़े कृष्ण मेनन का नैतिक बल क्या रहा होगा आप समझ सकते हैं। सेनाध्यक्ष होने के नाते थिम्मैया रक्षामंत्री को सलाह देते कि चीन से निपटने के लिए सेना को हमेशा तैयार रहना चाहिए. लेकिन मेनन कहते है- हमें चीन से कोई खतरा नहीं. अपना ध्यान और अपनी सेना पाकिस्तान बार्डर पर लगाइए। ये सब तब था कि लद्दाख के अक्साई चिन में चीन का कब्जा जग जाहिर हो चुका था।
थिम्मैया चाहते थे कि सेना को लड़ने के लिए अमेरिका से आधुनिक हथियार खरीदने चाहिए। अमेरिका का नाम सुनकर मेनन भड़क जाते- “मैं नाटो के हथियार इस देश में नहीं आने दूंगा.” (थिमैया आफ इंडिया, हम्फ्री इवांस- थिम्मैया को ठीक से जानना है तो ये किताब पढ़िए/थिम्मैया पहले और आखिरी सेनाध्यक्ष हैं जिन पर किसी विदेशी लेखक ने कोई किताब लिखी है बहुत दिलचस्प किस्से हैं इस किताब में)
बहरहाल रक्षा मंत्री मेनन और सेनाध्यक्ष थिम्मैया के बीच मतभेद इतने बढ़ गए कि थिम्मैया ने अपना इस्तीफा नेहरू को भेजना पड़ गया. और और इसका तत्कालिक कारण थे बीएम कौल, जिन्हें थिम्मैया की मर्जी के खिलाफ आउट आर्फ टर्न प्रमोशन देकर लेफ्टिनेंट जनरल बना दिया गया था।