युद्ध अभी नहीं शुरू हुआ था. चीन, भारत की 12,000 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर चुका था. नेहरू आखिर तक अपने चीनी दोस्त प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई को मनाने में जुटे थे. उन्हें दिल्ली आमंत्रित किया गया. वे एक हफ्ते दिल्ली रहे. दिन में बैठकें होती और रात में शानदार दावतें।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने एक दिन तस्वीर छापी जिसमें भारत-चीन दोस्ती के नाम चाओ एन लाई बेहद सलीकेदार ढंग से साड़ी पहने युवा इंदिरा गांधी के साथ जाम टकरा रहे थे। बगल में उपराष्ट्रपति एस राधाकृष्णन थे, उनके हाथों में भी जाम था। बातचीत नाकाम रही। चाऊ चाहते थे सीमा पर यथास्थति बनी रहे. यानी अक्साई चिन पर चीन का जो कब्जा है वह बना रहे. नेहरू ने कहा
“कौन सी यथास्थिति? आज की या दो साल पहले की. आज जो यथास्थिति है वह दो साल पहले की यथास्थिति से बिलकुल जुदा है. अगर पहले की यथास्थिति अलग है तो उसे आज की यथास्थिति मान लेना गलत है.”
चीन शुरू से यही करता आया है. वह तीन कदम आगे बढ़ता है. फिर वार्ता करके दो कदम पीछे हटता है. और बाकी कब्जा किए एक कदम पर अपनी पोस्ट बना लेता है. और कहता है इसी को यथास्थिति मान लीजिए. चीन लद्दाख सीमा की गलवान घाटी पर आज भी इसी फार्मूले पर वार्ता कर रहा है. इसलिए बात नहीं बन पा रही।
तो पूरे देश में सीमा पर चीनी सैनिकों के कब्जे की चर्चा थी. जैसे कि आज है. संसद और उसके बाहर नेहरू सरकार विपक्ष के निशाने पर थी. ऐसे में फिर चुनाव आ गए। फरवरी 1962 यानी चीन के हमले के आठ महीने पहले चुनाव हुए और नेहरू सरकार भारी बहुमत से एक बार फिर चुनाव जीत गई. शुरू के दो चुनाव नेहरू सरकार ने आजादी की लड़ाई के नाम पर जीते थे।
ये तीसरा आम चुनाव था जिसमें जनता को नेहरू सरकार ने काम काज पर वोट देना था. सीमा पर चीनी सैनिकों का कब्जा, रक्षामंत्री कृष्ण मेनन की निरंकुशता ये सब कोई मुद़दा नहीं बन पाया. जनता पर नेहरू का चमत्कारिक जादू एक बार फिर चल गया। विपक्ष उसी तरह चकित था जैसा मोदी के नेतृत्व में एनडीए के दोबारा बम्पर वोटों से चुनाव जीतने पर कांग्रेस हैरत में थी।
सेनाध्यक्ष थिम्मेया रिटायर हो चुके थे. उन्होंने एक पत्रिका ‘सेमिनार’ के जुलाई 1962 अंक में एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने बताया कि “रूस की मदद से चीनी सेना इतनी मजबूत हो चुकी है उसकी ताकत हमसे सौ गुना ज्यादा है. मुझे नहीं लगता कि आने वाले वक्त भविष्य में भी हम उसका मुकाबला कर पाएंगे. ऐसे में हमारे नेताओं को कोई कूटनीति से देश की सुरक्षा के बारे में विचार करना चाहिए।” लेकिन चीन के खिलाफ देश में राष्ट्रवादी भावना उबाल मार रही थी।
चीन पर हमले का खतरा और बढ़ गया था. नेहरू ने लोकसभा में विपक्ष के नेताओं की गुप्त बैठक बुलाई. इसमें रक्षामंत्री मेनन, नए आर्मी चीफ जनरल पीएन थापर और ले. जनरल कौल मौजूद थे. इस मीटिंग में विपक्ष के एक नेता ने नेहरू से कहा-“इंसान को दो चीज प्यारी होती है जमीन और स्त्री। आपने चीनियो को 12,000 वर्ग मील जमीन तो दे दी, क्या अब हमारी स्त्रियां भी उनको दे देंगे.” यह सुनकर नेहरू का चेहरा गुस्से से लाल हो गया. लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। (द अंटोल्ड स्टोरी बीएम कौल पेज 242)
प्रधानमंत्री नेहरू और ले. जनरल कौल की कमेस्ट्री से मीडिया को खास दिक्कत थी. ‘करंट” के संपादक डीएफ करारका ने अपने लेख में लिखा-“कौल अगर मुंह खोलते हैं तो सिर्फ आदेश देने के लिए और जब तक वे आदेश देने की स्थिति में नहीं रहते तब तक शांत रहना पसंद करते हैं। कौल हर चीज पर नजर रखते हैं. वह केवल आर्मी चीफ ही नहीं बनेंगे बल्कि एक दिन प्रधानमंत्री भी बन सकते हैं.” (करंट 7 अक्टूबर 1961)
उधर सीमा पर तनाव बढ़ता जा रहा था. चीनी सैनिक लाउडस्पीकर लगाकर चिल्लाते थे-“हिन्दी चीनी भाई भाई, लेकिन ये जमीन हमारा है तुम वापस जाओ।” हिंदी में ये लाइनें सभी चीनी सैनिकों को रटा दी गईं थी. लद्दाख से लेकर नेफा तक भारतीय सैनिकों को देख चीनी सैनिक यही बालते थे. चीन ने सबसे पहले उसी गलवान घाटी में डेरा डाल दिया जहां आज चीन और भारत की सेनाएं आमने सामने खड़ी हैं।
मेनन के मामले पर क्या मजाल कि किसी के कानों पर जूं भी रेंगी हो. तीन सितम्बर 1962 को कौल ने कश्मीर घूमने के लिए दो महीने की छुट्टी मांगी। आर्मी चीफ ने तो उन्हें छुट्टी दे दी लेकिन रक्षामंत्री मेनन उन पर व्यंग्य वाण छोड़ने से बाज नहीं आए। बोले-“चीन सिर पर खड़ा है और ऐसे वक्त में तफरीह के लिए छुट्टी।” खैर जिसके ऊपर पूरे नेफा की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी वह कश्मीर में छुट्यिां बिताने निकल गया. तब अरूणाचल प्रदेश और उसके आसपास का सीमान्त इलाका नेफा ही कहलता था। नेफा यानी नॉर्थ-ईस्ट फ़्रंटियर एजेंसी. कौल को छुट्टी से बुलाया गया।
3 अक्टूबर 1962 को काबिल लेफ्टिनेंट जनरल उमराव सिंह को हटाकर उनकी जगह बीएम कौल को लेफ्टिनेंट जनरल बना दिया गया. उन्हें जिम्मेदारी दी गई कि नेफा में ढोला-थांग ला सीमा से चीनियों को धक्के मार कर बाहर निकाल फेंकें। नेहरू ने कौल से कहा कि वह नेफा जाकर अहम घटनाओं की सूचना सीधे उन्हें खुद दें। (द अंटोल्ड स्टोरी बीएम कौल पेज 316)
19/20 अक्टूबर 1962 की रात चीन ने एक साथ इधर नेफा और उधर लद्दाख सीमा पर हमला किया. और चीन ने एक रात में नेफा में बीस और लद्दाख में आठ भारतीय चौकियों पर कब्जा कर लिया. हमारे सैनिकों को पहाड़ी इलाकों में लडाई की ट्रेनिंग नहीं थी. सीमा पर सड़के नहीं थी कि हमारे सैनिक वहां पहुंच कर कमान संभाल लें. हेलीकाप्टर से सैनिक भी जाने थे उनके हथियार भी और उनकी रसद भी।
इसी दौरान नेफा में तैनात लेफ्टिनेंट जनरल बीएम कौल के सीने में दर्द उठा. जंग के लिए तैयार हो रहा एक हेलीकाप्टर उन्हें आनन फानन में इलाज के लिए दिल्ली ले आया गया. ठीक हमले के वक्त एक कमरंडर के मैदान छोड़ कर भागने की खबर चीन और पाकिस्तान रेडियो पर चलने लगी. ऐसा चीनियों ने भारतीय सेना के हौसले को पस्त करने के लिए किया थाा।
कौल को कमांडर बनाए जाने से पहले ही उनकी कोर का मनोबल टूट चुका था. डाक्टरी जांच के बाद उन्हें ‘रेस्ट’ के लिए घर भेज दिया गया. तब अखबारों में खबरें छपीं कि कौल दिल्ली में अपने मोतीलाल नेहरू मार्ग पर स्थित अपने घर से युद्ध का संचालन कर रहे हैं।
उधर नेफा में उनका कोर नेतृत्व विहीन हो गया. अरूणांचल प्रदेश का तवांग इलाका चीन ने अपने कब्जे में कर लिया. अगले दस दिन में ही भारत जंग हार चुका था. यह केवल एक सैन्य पराजय नहीं थी बल्कि सत्ता के अंहकार में डूबी निरंकुश नेहरू सरकार की नैतिक पराजय थी।
इस शर्मनाक पराजय से नेहरू के बाद आने वाली पीढ़ियों को सबक लेना चाहिए था। लेकिन किसी ने सबक लिया ऐसा तो दिखता नहीं. क्योंकि इतिहास से सबक लेना कोई नहीं चाहता. क्योंकि अहंकार इतना है कि सब अपना इतिहास बनाना चाहते हैं. लेकिन वक्त उन्हें इतिहास बना कर रद्दी की टोकरी में फेंक देता है. नेहरू हों या मोदी. आप कब तक पोस्टरों पर कागज के भगवान बना कर दिखाएंगे। वक्त आने पर इतिहास सबका मूल्यांकन करता है।
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