ज़रा सा गॉधी हैं भीतर

महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर गॉधी को याद कर रहे हैं नवभारत टाइम्स लखनऊ एडिशन के रेजिडेंट एडिटर सुधीर मिश्रा

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जिस स्कूल से पढ़ाई शुरू की, उसका नाम ही था महात्मां गांधी मांटेसरी स्कूल। जाहिर है जीवन पर गांधी जी का प्रभाव तो पड़ना ही था। गांधी जी की कुछ सीखें बचपन में बड़ी नागवार गुजरतीं। सच कहूं तो कभी उन्हें माना भी नहीं। जैसे कि कोई एक गाल पर थप्पड़ मारे तो दूसरा गाल उसके आगे कर दो। मनुष्य स्वभाव से हिंसक होता है। प्रतिहिंसा उसके व्यवहार का हिस्सा होती है। मुझमें भी रही। ऐसे में कोई अगर एक मारता तो पलटकर एक तो हमेशा मारा। भले ही बाद में कितने भी पड़े। खैर वह बचपन था। मार खाने के बाद दूसरा गाल आगे करने जैसा इतना बड़ा मानवीय पहलू आत्मसात कर पाना आसान नहीं था। पर जैसे जैसे आगे बढ़ता गया, गांधी के बारे में पढ़ता गया तो समझ आने लगा कि आंख के बदले आंख का नियम हो तो सारी दुनिया ही अंधी हो जाएगी।

गांधी बचपन से भीतर ही भीतर उतरते गए। तमाम विरोधाभासों के साथ। मानवीय गलतियों के साथ। जैसी कि समय समय पर गांधी जी भी करते रहे। इनके बारे में उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा भी। फिर भी गांधी का अंश मात्र भीतर आने से जीवन कैसे सफल हो जाता है, वह मैं महसूस कर सकता हूं। खासतौर पर नेतृत्व के गुणों को सीखने के मामले में। मिसाल के तौर पर उन्होंने लोगों को विदेशी कपड़ों का त्याग करने के लिए तब कहा जब उन्होंने खुद लंगोटी पहन ली। लोग लंबे समय तक भाषण नहीं सुन सकते, वह आपका अनुकरण कर सकते हैं। यह नेता को तय करना होता है कि वह अपने लोगों को किस रास्ते पर ले जाना चाहता है। सच और उसका खुद का आचरण इसके लिए जरूरी होता है। यह गांधी जी से सीखा जा सकता है। दुनिया के जितने भी देशों में गया, वहां गांधी के नाम पर रोड हैं। उनकी मूर्तियां लगी हैं और विश्वविद्यालयों मे लोग उनके राजनीतिक दर्शन को पढ़ते हैं। पेरिस हो या डरबन। हमेशा गर्व महसूस हुआ कि मैं गांधी के देश से आया हूं।


अभी लगता है कि आज देश और दुनिया को शायद सबसे ज्यादा गांधी के विचारों की जरूरत है। वजह यह कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां और बाजार लोगों पर हावी है। लोग अपनी संस्कृति, हुनर और गुणों को भूल रहे हैं। मशीनों के आगे नतमस्तक है। आर्टिफीशियल इंटैलिजेंस के जरिए दुनिया चलाने की तैयारियां हो रही हैं। गरीब लगातार गरीब हो रहे हैं और अमीर अमीर होते जा रहे हैं। सम्पत्तियां कुछ लोगों तक सिमट रही हैं। विकास के जो मॉडल हैं, उनमें राष्ट्रीयता के दावे तो हैं पर स्वावलम्बन गायब होता जा रहा है। चीन के माल से बाजार पटा है। हमारी प्रतिभाएं यूरोप-अमेरिका में पलायन कर रही हैं। पूरा देश के एक मिडिल क्लास बाजार के तौर पर विकसित हो चुका है जो गरीबी से पहाड़ से घिरा है। पूंजी पर हर विचार के ऊपर हावी है। नए रोजगार आना तो दूर की काैड़ी है, हमारे गांव अपने परम्परागत रोजगारों को भी छिनता दिख रहे हैं। मूर्तियां, पटाखे और हाथ के पंखे तक चीन से आ रहे हैं। पर्यावरण लगातार बिगड़ता जा रहा है। सुविधाओं के लिए हम प्रकृति को छेड़ रहे हैं। मीडिल क्लास की सोच अपनी और अपने परिवार के ख़याल तक सीमित होती जा रही है। सही मायने में राजनीतिज्ञ ढूंढे से नहीं मिल रहे। ठेकेदारों दलालों के बीच से नेतृत्व तलाशें जा रहे हैं। समझ सकते हैं कि दिशा क्या है। गांधी को माफी मांगना आता था। आज गलतियां ढांपी जा रही हैं। नया गांधी पैदा होने में तो शायद काफी वक्त लगेगा, मौजूदा नेता ही अगर थोड़ा सा गांधी खुद में पैदा कर लें, फिलहाल शायद यही काफी होगा।

सुधीर मिश्रा, संपादक, नवभारत टाइम्स लखनऊ

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