गॉधी और कश्मीर

महात्मा गांधी की 150 वीं जयंती के अवसर पर 'कश्मीरनामा' के लेखक अशोक कुमार पाण्डेय गॉधी और कश्मीर के संबधों को रेखांकित कर रहे हैं।

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गाँधी 1 अगस्त 1947 को पहली और आख़िरी बार कश्मीर गए । असल में शेख़ अब्दुल्ला की रिहाई में हो रही देरी और कश्मीर की अनिश्चितता को देखकर जवाहरलाल नेहरू ख़ुद कश्मीर जाना चाहते थे । लेकिन हालात की नाज़ुकी देखते हुए माउंटबेटन नहीं चाहते थे कि वह कश्मीर जाएँ और कोई नया तनाव पैदा हो । महाराजा भी नेहरू की यात्रा को लेकर सशंकित थे । ऐसे में माउंटबेटन के आग्रह पर महात्मा गाँधी ने कश्मीर जाने का निर्णय लिया । गाँधी श्रीनगर पहुँचे तो जनता ने उनके स्वागत में शहर को ऐसे सजाया कि जैसे दीपावली हो । महारानी तारा देवी सोने की थाल में दूध का गिलास लिए नंगे पाँव गाँधी का स्वागत करने पहुँची और कहा कि जब कोई महान संत हमारे यहाँ आता है तो यह परम्परा है कि हम दूध पिलाकर उसका स्वागत करते हैं । लेकिन गाँधी ने कहा- गाँधी उस राजा का दूध स्वीकार नहीं कर सकता जिसकी प्रजा दुखी हो । उन्होंने महाराजा की जगह नेशनल कॉन्फ्रेंस का आतिथ्य स्वीकार किया और बेग़म अकबर जहाँ को साहस और धीरज रखने के लिए कहा । अकबर जहाँ भी महात्मा गाँधी की प्रार्थना सभा में शामिल हुईं । 

गाँधी और महाराजा में क्या बातचीत हुई यह ठीक ठीक तो कोई नहीं जानता लेकिन इतना तय है कि उन्होंने राजा से जनता की इच्छा का सम्मान करने और शेख़ अब्दुल्ला को रिहा करने की माँग की । जम्मू में हिन्दू प्रतिनिधि मंडल से उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि केवल जनता के हाथ में यह तय करने की शक्ति होनी चाहिए कि वह किसके साथ जुड़ना चाहती है । कश्मीर से रावलपिंडी रिफ्यूजी कैम्प के लिए निकलते हुए उन्होंने प्रेस से कहा कि कश्मीर का मुद्दा भारत, पाकिस्तान, महाराजा और कश्मीर की जनता को मिलकर शान्ति से सुलझाना चाहिए लेकिन यह कश्मीरी जनता के सबसे बड़े नेता शेख़ अब्दुल्ला को रिहा किये बिना संभव नहीं है । हालाँकि गाँधी ने इसे एक अराजनीतिक यात्रा बताया लेकिन उस माहौल में यह संभव नहीं था कि इसके कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं होते । टाइम्स ने 25 अक्टूबर को लिखा –

ऐसे संकेत मिले हैं कि कश्मीर के हिन्दू महाराजा हरि सिंह इन दिनों तीन महीने पहले यहाँ आये गाँधी और अन्य नेताओं से काफी प्रभावित हैं ।

इसका सबसे पहला प्रभाव यह हुआ कि जनता के बीच बेहद बदनाम रामचंद्र काक को प्रधानमंत्री पद से बर्ख़ास्त कर दिया गया और अगले ही दिन उन्हें अपने घर में ही नज़रबंद कर दिया गया । लगभग सभी लेखकों ने इस तथ्य का ज़िक्र किया है कि गाँधी ने रामचंद्र काक की तीख़ी आलोचना की थी । इसके बाद पहले जनक सिंह को और फिर सीमा निर्धारण के समय भारत के प्रतिनिधि रहे पूर्वी पंजाब के उच्च न्यायालय के न्यायधीश मेहरचंद महाजन को प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया, यह आम मान्यता है कि महाजन के नाम का सुझाव भारत सरकार का था । यही नहीं, इस दौर में भारत के साथ संपर्क बेहतर बनाने के लिए सड़क, टेलीग्राफ़ तथा रेल मार्गों को बेहतर बनाने के लिए काम किया गया । सितम्बर 1947 के अंत में जम्मू और कश्मीर की राज्य सेनाओं के प्रमुख स्काट के सेवानिवृत्त होने पर पटेल ने तत्कालीन रक्षा मंत्री बलदेव सिंह को यह अनुशंसा की कि उसकी जगह लेने के लिए भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट कर्नल कश्मीर सिंह कटोच को भेजा जाए । स्पष्ट तौर पर यह नियुक्ति भारत के अपने हित में भी थी और इसका स्वीकार महाराजा की ओर से भारत की ओर बढ़ा हुआ क़दम था । इन क़दमों ने शेख़ अब्दुल्ला से मित्रता के कारण कांग्रेस को अपना शत्रु समझने वाले महाराजा के लिए यह स्पष्ट संकेत दिया कि शेख़ को कश्मीर की राजनीति में उचित स्थान देकर भारत के साथ विलय की दशा में उनके हितों का भी पूरा ध्यान रखा जाएगा ।

जिन्ना कश्मीर क्यों आना चाहते थे 

गाँधी की यात्रा का महत्त्व इस तथ्य की वज़ह से भी बढ़ जाता है कि इसी दौरान जिन्ना भी लगातार कश्मीर आने की कोशिश कर रहे थे । उन्होंने महाराजा को कई संदेशे भिजवाये जिनमें स्वास्थ्य लाभ के कारण से श्रीनगर आने की बात थी । लेकिन महाराजा ने बहुत विनम्रता से यह कहते हुए मना कर दिया कि वह अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि एक महत्त्वपूर्ण पड़ोसी देश के राज्य प्रमुख के स्वागत के लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ कर सकें । इसके पहले जिन्ना कश्मीर आ चुके थे और नेशनल कॉन्फ्रेंस तथा मुस्लिम कॉन्फ्रेंस, दोनों ने उनका स्वागत किया था। बाद में जब मुस्लिम कॉन्फ्रेंस के मंच आए उन्होंने नेशनल कॉन्फ्रेंस को गुण्डों का समूह कहा तो शेख़ ने कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि अगर आप हमारे अंदरूनी मसलों में दख़ल देना बंद नहीं करेंगे तो कश्मीर से आपका कुशलतापूर्वक लौटना मुश्किल हो जाएगा। कांग्रेस के भीतर साम्प्रदायिक तत्त्वों के मज़बूत होने के साथ ही नेहरू और शेख़ की दूरी बढ़ी, शेख़ गिरफ़्तार भी हुए. अपनी जीवनी में वह लिखते हैं – साबरमती के संत आज ज़िंदा होते तो यह सब नहीं होता। 

कश्मीर मामले के विशेषज्ञ लेखक अशोक कुमार पाण्डेय

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