पुष्पसंवाद
जिन सभी पगडंडियों से होकर
हम कुसुम लताओं की छाव पाने
सुदूर अकेले उस उपवन में जाते थे
वो आज कई सवाल करते हैं
और जवाब भी मांगते हैं कुरेदकर…
कि तुम्हारी वनसंगिनी
जिसे तुम अपनी प्रियतम कहते थे
वो अब नहीं आती है तुम्हारे साथ
इसलिए तुम यहाँ आना छोड़ दिए?
तुम कहाँ हो नाथ
मैं यहां सालों से
निर्जन वन में निर्जल तुम्हारे इंतज़ार में हूँ!
मैं संकोच में पड़
सर लज्जा से गोत लेता हूँ
जब वो निरीह लताएं पूछती है
कि मैं तुमसे प्रेम करती थी
इसीलिए मैं भीषण गदराये यौवन में
जब मेरी गठीली, सुडौल अंग सौष्ठव
सुमनलताएं बिखरे रखते थे पत्तों पर
तब भी, मैं तुम्हें छूने देती थी
तोड़ लेने देती थी,
तोड़ कर प्रेम से मसल देने लेती थी खुद को!
मैं तुम्हारे प्रेममद में पागल
कुछ न सोचती
कि मेरा प्रेमी मुझे तोड़ कर
अपने प्रेमिका को सौप देता है–
मैं चिरप्रेम में समाधिस्त वियोगिनी
कभी उधर ध्यान ही नहीं दी!
मैं अपने प्रेम में इतना कर दी
न तुम्हें पाने की
अपितु, दर्शन की एकमात्र अभिलाषा लिए!
और तुम ऐसे वियोगी हो, कि उससे
विरत होते ही सबसे विलग हो गए
और हमें तनिक ध्यान भी न दिया!
क्या तुमने कभी नहीं सोचा मेरे प्राण
कि तुम्हारी विरक्ति से वीरान पड़े
इन काठ के शाखाओं का क्या होगा?
क्या तुम एक प्रेम के छोड़ चले जाने के बाद
अपने सभी प्रेयसियों को ऐसे ही छोड़ दोगे-
मिलन की लोलुपता में तपते हुए?
काम की आग में जलते हुए हुए?
और अपने ही यौवन में गलते हुए?
इस रसभरी पुष्पों को कौन तोड़ेगा?
कौन करेगा इसका रसास्वाद?
कौन झाड़ेगा मेरे पत्तों को?
कौन करेगा मुझे तृप्त नाथ?
बोलो मेरे प्राणेश्वर?
बोलो