ग़ाज़ीपुर का औड़िहार… जहाँ के लोगों ने बर्बर हुणों को मार भगाया था।

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में आज भी यह संवाद गांव-गांव प्रचलित है कि बचवा सुत जा, नाहीं त हुणार आ जाई।हम लोग भी बचपन से यह कहावत अपने बाबा दादी से सुनते आ रहे है। अब तक लोग इस प्रचलित शब्द हुणार को कोई जंगली जानवर मानते आए हैं जो बच्चों को उठा ले जाता है, जैसे कोई लकड़सुंघवा, लकड़बघ्घा या आदमखोर कोई जानवर हो।

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वाराणसी से गोरखपुर सड़क के रास्ते या रेल के रास्ते जाते समय वाराणसी से करीब 30 किलोमीटर पहले स्थित औड़िहार जंक्शन पर लगभग हर ट्रेन और बस ठहरती है। जहां की पकौड़ी आजकल बहुत प्रसिद्ध है। भारतीय इतिहास के वीर प्रवाह को समझने के लिए यह स्थान बेहद महत्वपूर्ण है। बिल्कुल गंगा के किनारे बसा यह छोटा सा गांव मध्य एशिया के बर्बर हूणों के समूल विनाश का साक्षी है। गंगा की कलकल धारा के किनारे सदियों पहले यह वीरान गांव आज भी आबादी के लिहाज से बहुत ही छोटा है, किन्तु यहां के क्षत्रियों समेत चारों वर्णों की कीर्ति पताका पूर्वांचल के इलाके में सबसे अधिक चर्चित रहती है। पता नहीं कि यहां बसी आबादी के लोग ये जानते हैं कि नहीं कि उनके गांव का नाम औड़िहार क्यों पड़ा ? इतिहास के मौजूदा साक्ष्य जो यहां के सैदपुर से लेकर औड़िहार तक के क्षेत्र में यत्र तत्र बिखरे पड़े है, और औड़िहार के पास सैदपुर-भितरी नामक गांव में मौजूद स्कन्दगुप्त की लाट गवाही देती है कि यह औड़िहार वही स्थान है जहां बर्बर हूणों की फौज को स्कन्दगुप्त ने अपने बाहुबल से प्रबल टक्कर दी, ऐसी चोट पहुंचाई थी हूणों को कि इस जगह का नाम ही हूणिहार या हुणिआरि पड़ गया। मतलब वह जगह जहां हूणों की हार हुई, जहां हूणों की पराजय का इतिहास लिखा गया, जो भूमि दुर्दांत हूणों के लिए अरि यानी शत्रु समान खड़ी हो गई, वह जगह ही आज अपभ्रंश रूप में औड़िहार के रूप में मौजूद है।

लगभग 1600 साल पहले की यह महान क्रांति गाथा है। औड़िहार के बिल्कुल बगल से बहने वाली गंगा की धारा में ही तब स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य के विक्रम ने नई लहर उठाई थी। जिसमें हूणों का कहर सदा के लिए विलीन हुआ था। हूण चीन के उत्तर पूर्व के निवासी थे।जो अपनी बर्बरता, आतंक के लिए कुख्यात थे।सिकंदर के बाद हुणो ने ही रूस यूरोप से लेकर यूनान और एशिया तक के भूमि को अपने पैरो तले रौद दिया था। ये जहा गए, वहा की सभ्यता को बहुत क्षति पहुंचाए।ये अलग बात है की भारत में आकर आतंक फैलाकर अंत में ये बर्बर जाति भारत की सनातन संस्कृति में समाहित हो गई। हूणो का सनातन संस्कृति में समाहित हो जाना मुझे वैसे ही आश्चर्य लगता है, जैसे तुर्क बाद में इस्लाम में चले गए।

गंगा की लहरों पर जब पहली बार हूणों की बर्बरता की काली छाया पड़ी थी। तब से लेकर आजतक कितना पानी बह गया, किन्तु प्रयाग से पाटलीपुत्र के मध्य काशी, बलिया तक के गांव और करोड़ों लोगों के मन से उस खौफनाक अध्याय की स्मृतियां आजतक मिट नहीं सकीं। यहां के गांवों के नाम हुणों की पराजय के नाम से बसे, औड़िहार, मुड़ियार, हौणहीं, तातारपुर ऐसे दर्जनों गांव हैं, जहां बसे लोगों के पुरखों ने स्कन्दगुप्त की महासेना के सैनिक और कमांडर के रूप में इस महायुद्ध में हिस्सा लिया था। आजकल औड़िहार गाजीपुर जनपद का हिस्सा है। बनारस की भूमि से सटकर बहने वाली गोमती और गंगा से बिल्कुल ही सटा हुआ। हूणों से निपटने के लिए इस जगह का चुनाव स्कन्दगुप्त ने सोच-समझकर किया था। मौर्य काल से ही भितरी का यह इलाका गंगा के इस पर पश्चिमी दिशा में पाटलीपुत्र की सुरक्षा के लिए अभेद्य रक्षा कवच था, यहां पर जो सैनिक छावनी कौटिल्य और चंद्रगुप्त मौर्य के समय निर्मित हुई, वह गुप्त साम्राज्य के समय में भी सुगठित ढंग से संचालित होती रही थी। आज भी इस इलाके के युवाओं का डीएनए सबसे पहले भारत की सेना में ही करियर खोजता है, आंकड़े गवाही देते हैं कि भारत की फौजों में गाजीपुर के हर गांव से युवकों की टोलियां तब से ही भर्ती होती चली आ रही हैं, देश की रक्षा के लिए लहू बहा देने और अपना सब कुछ लुटा देने का यह पाठ उनके दिलो-दिमाग में स्कन्दगुप्त जैसे महानायकों की छाया में और प्रबलित हुआ था। इस्ट इंडिया कंपनी ने भी इस क्षेत्र के नवयुवकों को अपनी सेना में रखा अवध के नवाब की देखादेखी। उनको बताया गया की इस क्षेत्र के युवा जन्मजात योद्धा है।दुनिया को रौदने वाले हूणो को इन युवा सैनिकों ने ही धूल चटाई थी।

उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में आज भी यह संवाद गांव-गांव प्रचलित है कि बचवा सुत जा, नाहीं त हुणार आ जाई।हम लोग भी बचपन से यह कहावत अपने बाबा दादी से सुनते आ रहे है। अब तक लोग इस प्रचलित शब्द हुणार को कोई जंगली जानवर मानते आए हैं जो बच्चों को उठा ले जाता है, जैसे कोई लकड़सुंघवा, लकड़बघ्घा या आदमखोर कोई जानवर हो। मगर प्रो. आरसी मजूमदार, जयशंकर प्रसाद और आचार्य वासुदेवशरण अग्रवाल जैसे कुछ यशस्वी लेखक-विद्वान जब लोगों के बीच पहुंचे, और इस कहावत पर खोज पड़ताल किए तो पता चला पूर्वांचल के लोक-मन में यह जो हुणार शब्द है, यह किसी असल सियार, लकड़सुंघवा, लकड़बग्घे या किसी भेड़िये का नाम नहीं, बल्कि भेड़िये के रूप में उन्हीं भयानक हुणों का मन के किसी कोने अंतरे में छुपा वह खौफ है जिसे भेड़िये की तरह पशुवत् हिंसक जीवन को अपनाकर ही हूणों ने विश्व इतिहास का सबसे बर्बर अध्याय लिखा और आज से 2000 साल पहले भारत की धरती पर भी अपनी तलवारों से मानवता के विरूद्ध अत्याचार और अपराध को सबसे भयावह रक्तरंजना दी थी।

हूणों से जो टक्कर तब हुई थी, आजतक उसकी स्मृति यहां के जन-जीवन के मन से मिटती नहीं। सैकड़ों साल से काली अंधेरी रातों में माताएं अनजाने ही सही इस भूभाग में बसे गांवों में अपने बच्चों को सुलाते समय यह कथा दोहराती आ रही हैं कि ‘बचवा सुत जा नाहीं त हूणार आ जाई।’ अर्थात, बेटा सो जा नहीं तो हूण आ जाएगा।यह कहावत मैं बहुत सारी फिल्म, और साहित्य में भी पढ़ा हु। आपको शोले फिल्म में गब्बर सिंह का डायलॉग याद आ गया होगा, वह फिल्मी पटकथा का संवाद है लेकिन मैं जो बताने जा रहा हूं वह वास्तविक भारत-कथा है, जो हमारी लोक-स्मृतियों में भी अलग अलग संवाद रूप में अमर हो गया। डर और भय का सबब बने खूंखार हूणोंं के अत्याचार इस देश के मनों में इस कदर कहर बनकर बरपे कि पीढ़ी दर पीढ़ी अपने बच्चों को सुलाते हुए माताएं हूणों के उस खौफनाक दौर को यादकर बरबस कलप उठती थीं। जब हुणों के भयानक हुजूम हिन्दुस्तान की धरती पर टूट पड़े थे, हूण सबसे पहले बच्चों को निशाना बनाते थे, (इस बात से पता चलता है की हूण मध्यकाल के तैमूर और नादिर शाह आदि से भी क्रूर थे) क्योंकि बच्चा अगर बच गया तो बड़ा होकर वह चुनौती बनेगा, बदला लेगा, युद्ध करेगा, इसलिए उसे सबसे पहले मार डालो। भावी पीढ़ी यानी बच्चों को मार डालना बर्बर हुणों की युद्ध नीति का सबसे अहम हिस्सा था। इसके बाद बची युवा पीढ़ी तो उसे रणभूमि में काट डालो, मार डालो और उनकी स्त्रियों, जवान बेटियों को उठा ले जाओ। जले-लुटे-नष्ट-भ्रष्ट हुए गांवों में शेष बूढ़े बचे रहेंगे, जीवन-भर हूणों की भयानक करनी की कल्पना कर कर कलपते रहेंगे, छाती पीट पीटकर रोते रोते ही जिन्दगी बसर करेंगे, उस हादसे के मारे ही मरने को विवश होंगे जो हादसा उनके जीवन में हूणों के हमले के खौफनाक मंजर से पैदा हुआ था।और लोगों को हुणो के आतंक की कथा को सुनाएंगे, जिसे सुनकर अगला कोई हूणो से टकराने की नही सोचेगा।

किन्तु हूणों को तब शायद यह नहीं पता था कि जिस यूनान, मिस्र और रोम को वह मटियामेट कर अपनी अतृप्त लुटेरी पिपासा लिए भारत की बरबादी, लूट, हत्या, बलात्कार और डकैती का खौफ लिखने गंगा-यमुना की लहरों पर चढ़े चले आ रहे हैं, उसके जर्रे जर्रे में भारत की उठती जवानी उनकी मौत ही नहीं उनकी नैतिक उत्थान का भी इतिहास लिखेगी।और यह संभव होगा स्कन्दगुप्त और इस क्षेत्र के लोगों के द्वारा। इसलिए स्कंदगुप्त की महागाथा आज भी हमारे मन में बार बार उठती है, जो भविष्य में भी कभी मिट न सकेगी। खास कर तब, जब लोग यह बात जानेंगे।एक साल के अंदर मिस्र, इराक,ईरान की सभ्यताओं को मिटा देने वाला इस्लाम भारत की सभ्यता संस्कृति को मिटा नही पाया,तो इसकी वजह एक यह भी है की इस देश ने अरबियो से भी बर्बर जाति का मुकाबला बहुत पहले से ही करना शुरू कर दिया था। हूणो के साथ युद्ध ने तो भारत के हर स्त्री पुरुष में धर्म संस्कृति के लिए जान दे देने की बात डाल दी। जो आगे चलकर असभ्य बर्बर अरबियों के साथ मुकाबले में काम आई।


जब-जब धरती पर अत्याचार और बर्बरता का रौरव नरक बरसेगा, तब-तब यह देश अमरता की अपनी उस महायात्रा को पुनर्जीवित करेगा। जिसमें से स्कन्दगुप्त जैसे वीर नायक जन्म लेते हैं, इस देश के अमर संजीवन प्रवाह से शक्ति प्राप्त करते हैं और फिर अपना सब कुछ मातृभूमि की सेवा और सुरक्षा में लुटाकर चुपचाप इस भूमि से विदा हो जाते हैं। जिनके कारण हमारा अस्तित्व यूनान-रोम-मिस्र जैसी सभ्यताओं के मिट जाने के बाद भी जिंदा रहता है और संसार की छाती पर अपना ध्वज गाड़कर युग युग से इन सब बातों की गवाही देता है।
स्कन्दगुप्त को महान इतिहासकार प्रो. आरसी मजुमदार ने ‘द सेवियर ऑफ इंडिया’ की उपाधि यूं ही नहीं दी है। सेवियर ऑफ इंडिया अर्थात भारत का रक्षक, भारत का त्राता, भारत को बचानेवाला। इतिहास में हुणों की दुर्दांत सेनाओं को अपने बाहुबल से स्कन्दगुप्त ने ही सबसे बड़ी टक्कर दी। इस हद तक टक्कर दी कि मध्य एशिया में हूणों के ठिकानों में विधवाएं ही बचीं और उनके पुरूषों का मानो अकाल ही पड़ गया। कम से कम दो लाख हूणों की अश्वबल से सम्पन्न सेना में सबके मारे जाने की सूचना देने के लिए मुट्ठीभर ही बचे, जो सुरक्षित मध्य एशिया के अपने उन वीरान ठिकानों तक पहुंच सके। जहां से हूण जत्थे दनादन निकले थे ये सोचकर कि भारत के सुन्दर बसे समृद्ध ऐश्वर्यशाली स्वावलंबी और प्रचुर धन-संपदा ये युक्त गांवों और लोगों को लूटकर वह सदा के लिए मालामाल हो जाएंगे, किन्तु वीर स्कन्दगुप्त और उसकी महासेना के पराक्रम के सामने हूणों का सारा अभियान ही धरा रह गया, आए तो थे गरजती-लपलपाती तलवारों को झनझनाते हुए, भारत के लोकजीवन को डराते-मारते-लूटते। लेकिन स्कन्द गुप्त की कुशल व्यूह रचना के कारण गंगा-यमुना-गोमती आदि नदियों के प्रवाह में ऐसे फंसे कि भागने के लिए भी जगह नहीं बची। जिन कुछ हूण-टुकड़ियों को स्कन्दगुप्त ने क्षमादान दिया भी तो पश्चिम की ओर जाने वाले उत्तरापथ से जुड़े गणराज्यों के वीरों ने मार-मारकर उनको यमलोक पहुंचा डाला। औरिहार से गुजरते समय अचानक ही ये बातें मन में जिंदा हो उठती है। औड़िहार की भूमि हवा पानी अपने छाती पर देखी ये बातें आखों के सामने लाकर रख देती है। औड़िहार की भूमि को बार बार नमन है उसकी इस महागाथा के लिए।

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