संसद में मंत्री ने अपना गंजा सिर नेहरू को दिखाते हुए कहा, इस पर भी कुछ नहीं उगता तो क्या इसे कटवा के चीन को दे दूं!

और चीन ने जब सीमा पर डेरा डाला था तो नई दिल्ली में अजब सी अशांति थी. रक्षामंत्री कृष्‍ण मेनन सेनाध्यक्ष थिम्मैया की बर्दाश्त के बाहर हो गए थे. थिम्मैया ने नेहरू को इस्तीफा भेज दिया. थिम्मैया ने इस्तीफे में लिखा-

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पिछले साठ सालों में भारत का लोकतंत्र कहां आकर खड़ा है. सोचता हूं और चकित रह जाता हूं. चारों तरफ कितना सन्नाटा है. एक मुर्दानगी पसरी है बेशक इसका कारण कोरोना है. देश में आज न मजबूत विपक्ष है और न सरकार के गलतियों की तरफ इशारा करने वाला आक्रामक मीडिया. मंत्री और सांसद ऐसी बुलेट ट्रेन पर सवार हैं जिसकी कोई मंजिल नहीं. वह पांच साल सिर्फ गुजार रहे हैं. सांसद निधि को मैनज करने के अलावा उनके पास कोई काम नहीं बचा. लोकसभा में मुद्दों पर बहस नहीं होती सिर्फ ड्रामा होता है जिसकी मजेदार वीडियो क्लीप वायरल होकर खाली वक्त में जनता का मनोरंजन करती है।

और चीन ने जब सीमा पर डेरा डाला था तो नई दिल्ली में अजब सी अशांति थी. रक्षामंत्री कृष्‍ण मेनन सेनाध्यक्ष थिम्मैया की बर्दाश्त के बाहर हो गए थे. थिम्मैया ने नेहरू को इस्तीफा भेज दिया. थिम्मैया ने इस्तीफे में लिखा-

इन हालात में वह इस पद पर और नहीं रह सकते. मुझे कार्यमुक्त कर दिया जाए।’ थिम्मैया के इस्तीफे की खबर से पूरे देश में हडकंप मच गया. देश भर के सारे कामरेड थिम्मैया के खिलाफ खड़े हो गए। नम्बूदरीपाद बोले-‘ऐसे जनरल का तो कोर्ट मार्शल कर दिया जाना चाहिए।’ वामपंथी वीकली ब्लिज ने लिखा-‘थिम्मैया अमेरिकी लॉबी के हाथ बिक गए हैं

लेकिन देश में एक बड़ा तबका मानता था कि सारी गलती रक्षा मंत्री कृष्‍ण मेनन की है इस्तीफा उन्हें देना चाहिए। और तो और नेहरू समर्थक अखबार ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ भी यही चाहता था. अखबार ने संपादकीय में लिखा-‘ऐसी हरकते करके मेनन सेना का मनोबल गिरा रहे हैं.’ नेहरू के दोस्त और गृहमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भी नेहरू से कहा कि ‘कम से कम मेनन का विभाग ही बदल दीजिए.’ पत्रकार से सांसद बने बी शिवा राव ने नेहरू को लिखा- ‘देश कम्युनिस्ट शक्ति का गंभीर खतरा झेल रहा है. मेनन के बारे में व्यापक धारणा है कि वह कम्युनिस्ट समर्थक हैं. इसलिए उनके बारे में फैसले करने का वक्त आ गया है।’

(शिवराज के पत्र नेहरू को 3 सितम्बर 1959 बी शिवराज पेपर्स)

लेकिन न जाने मेनन का क्या जादू था कि नेहरू अड़े रहे और थिम्मैया को बुलकर और इलाहाबाद के पुराने दिनों का हवाला देकर समझा दिया कि वे अपना इस्तीफा वापस ले लें। जैसे ये रक्षामंत्री और सेनाध्यक्ष का झगड़ा न होकर इलाहाबाद मुंसिपाल्टी के किसी मेयर और सभासद का झगड़ा हो. बेमन से सही थिम्मैया मान गए।

कृष्णा मेनन के साथ पंडित नेहरू

लेकिन मेनन को लेकर नेहरू का विरोध संसद के भीतर और बाहर जारी रहा। तब संसद में सबसे तीखी हमले सोशलिस्ट पार्टी के जेबी कृपलानी की तरफ से होते थे। अभी कुछ साल पहले ही तक कृपलानी कांग्रेस के ही अध्यक्ष रह चुके थे। गांधीजी के करीबी थे. बहुत साफ और खरा-खरा बोलने वाले आदमी थे. लड़कियों के साथ नग्न सोने के अपने अटपटे प्रयोग पर एक बार गांधीजी ने उनसे राय मांगी तो उन्होंने गांधीजी को लिखा था-“जब तक आपमे मुझे पागलपन और विकृति के लक्षण दिखाई नहीं देते तब तक आपके बारे में मेरा भ्रम कभी दूर नहीं होगा.”

(महात्मा गांधीः ब्रह्मचर्य के प्रयोग पेज 369)

अब ऐसे टेढ़े आदमी की नेहरू से कितने दिन बन सकती थी. नेहरू ने उन्हें बहुत जल्द किनारे लगा दिया. वे सोशलिस्ट पार्टी में चले गए हालांकि उनकी पत्नी सुचेता कृपलानी कांग्रेस में ही सांसद थीं. खैर कृपलानी ने 11 अप्रैल 1961 को संसद में सीधे मेनन और नेहरू दोनों पर हमला बोल दिया. वे बोले-

सेना में प्रमोशन योग्यता पर नहीं रक्षा मंत्री की मनमर्जी पर हो रहे हैं. वे अपने नजदीकी लोगों को पद बांट रहे हैं। इससे सेना का मनोबल गिर रहा है.’ कृपलानी ने खुला इल्‍जाम लगाया- ‘रक्षामंत्री देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। भूख और गरीबी से बेहाल इस देश का पैसा बर्बाद कर रहे हैं

कृपलानी का इशारा ले. जनरल कौल की तरफ था. जो खुद उस दिन दर्शक दीर्घा में बैठे लोकसभा की कार्रवाही देख रहे थे. आचार्य कृपलानी ने आगे कहा- ‘कांग्रेसियों को चाहिए कि वह नेहरू के विरोध में आएं और उन्हें इस्तीफा देने पर मजबूर करें. जैसा कि कंजरवेटिव पार्टी के सांसदों ने अपने ही प्रधानमंत्री चैम्बरलिन को मजबूर किया था.’

(लोकसभा डिबेटस 11 अप्रैल 1961)

इसी दौरान प्रधानमंत्री नेहरू ने संसद में चीनी कब्जे पर सफाई देते हुए कहा- “अक्साई चिन में तिनके के बराबर भी घास तक नहीं उगती, वो बंजर इलाका है।” ये सुनकर मुरादाबाद से सांसद महावीर त्यागी को न रहा गया. नेहरू सरकार में वे खुद मंत्री थे. भरी संसद में महावीर त्यागी ने अपना गंजा सिर नेहरू को दिखाया और बोले- “यहां भी कुछ नहीं उगता तो क्या मैं इसे कटवा के चीन को या फिर किसी और को दे दूं।”

नेहरूजी लोकसभा में सदस्यों की उत्तेजना शांत कर रहे थे. नेहरूजी ने भी बहुत जोशीले अंदाज में कहा कहा-“हम अपनी एक इंच जमीन भी चीन को नहीं देंगे.” तो इस पर होशंगाबाद से सांसद और समाजवादी नेता हरि विष्णु कामथ अपने आपको रोक नहीं पाए. वे नेहरूजी से बोले-” आपके नक्‍शे में एक इंच कितने मील के बराबर है?” भरे सदन में नेहरू जी सकपका गए।

(भारतीय राजनीति और संसद : विपक्ष की भूमिका , सुभाष कश्यप पेज 52)

तो आप देखिए तब विपक्ष कितना मजबूत था। विपक्ष का नेता खुलेआम चैम्बरलिन की तरह नेहरू को हटाने की बात कर रहा था और कांग्रेस सांसद मेज थपथपा कर कृपलानी के भाषण की तारीफ कर रहे थे। अखबार संपादकीय लिखकर प्रधानमंत्री को समझा रहे थे। मंत्री और तमाम शुभचिंतक नेहरू को निजी और सार्वजनिक रूप से आगाह कर रहे थे कि मेनन को हटाइए

उन्हीं के दल के वरिष्ठ सांसद और मंत्री महावीर त्यागी और कामथ लोकप्रिय नेता नेहरू का सरेआम मजाक उड़ा रहे थे. लेकिन जिद के आगे नेहरू हिमालय की तरह अटल थे. क्योंकि वे जानते थे उन्हें चुनौती देना वाला कोई नहीं है. भारत के असली भाग्य विधाता वहीं हैं. और कोई नहीं। 

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