अगर अर्जुन रेड्डी का नाम अर्जुन नायडू होता या कबीर सिंह का नाम कबीर भुईयां होता तब भी क्या उन को इतनी अटेंशन मिलती? क्या कभी ऐसा हुआ है के राजा और प्रजा का संबंध मां और बच्चे का होता है जैसा बाहुबली में दिखाया गया है? क्या कोई ऐतिहासिक लड़ाई जनता के लिए हुई है या सत्ता साम्राज्य के लिए? धर्म वीर से ले कर तानहा जी तक सत्ता की लोलुपता को जनता के लिए लड़ी गई लड़ाई घोषित किया गया। क्या सनम बेवफा में किरदार शेर खां फतेह खां सलमान खां की जगह रियाज़ मंसूरी फयाज़ मंसूरी करीम मंसूरी होते तब भी क्या फिल्म को मुसलमानी फिल्म घोषित किया जाता?
फिल्म जगत के किरदारों और कहानियों को देखें तो उन में पिछड़े दलित पसमांदा की आवाज़ गायब दिखती है। वर्ण व्यवस्था में जो ऊपर थे वही हर जगह मौजूद हैं उन को वो जगह हासिल है जो बाकियों को नहीं है। ऐसा नहीं है के बाकियों में प्रतिभा नहीं है। प्रतिभाओं की कोई कमी नहीं है कमी है तो उस नज़रिए की जो ज़ात देख कर प्रतिभा तलाश करती है। सिनेमा के एक दौर में ठाकुर साहब राय साहब फिल्म के मुख्य किरदार होते उन की तकलीफों को फिल्माया जाता उन को रहम दिल दिखाया जाता वो दूसरे ज़ालिम ठाकुर साहब से पिछड़ों के लिए लड़ते और पिछड़े उन को ही अपना भगवान मानते। मतलब नेता भी वो गुंडा भी वो।
दलित विमर्श पर बनी फिल्मों को बड़ी सहजता से आर्ट फिल्म की कैटेगरी में डाल कर ठंडे बस्ते में फेंक दिया जाता है। मेन स्ट्रीम सिनेमा में आम शहरी किरदार दलित या पिछड़ा नहीं होता है। ऑफिस जाने वाला किरदार दलित पिछड़ा नहीं होता है। कॉलेज जाने वाला किरदार भी दलित पिछड़ा नहीं होता है। यहां तक जिन फिल्मों में औरत मेन किरदार होती है वो भी दलित पिछड़े वर्ग की नहीं होती है। दलित पिछड़े के बारे में ये खयाल में नहीं आता के उन का भी कोई आम संघर्ष होगा जिस की बुनियाद उस की जात पर ना हो कर उस की हर दिन की ज़रूरत पर होगा।
सिनेमा अगर सामाजिक विमर्श का माध्यम है तो आबादी के अनुपात में मेन स्ट्रीम सिनेमा के किरदार भी तो वो हों। सिनेमा अगर सामाजिक परिवर्तन का माध्यम है तो सिनेमा को ठाकुर साहब और कबीर सिंह के चंगुल से निकल कर गोकुल नेताम, दशरथ मांझी, सोरेन, भुईयां जैसे किरदारों को मुख्य पृष्ठ पर जगह देनी होगी। उन के जीवन संघर्ष को पर्दे पर उतरना होगा। उन के जन जीवन की कहानियां कहनी होंगी। उन की औरतों के बारे में सुनाना होगा। उन की लड़कियों की ख्वाहिशों पर फिल्में बनानी होंगी। उन को मेन स्ट्रीम साहित्य में लाना होगा और दलित साहित्य के अलग टैग से उन को निजात देनी होगी।