राजनीति का दोहरा चरित्र केवल भारत में ही देखने को मिल सकता है,अन्यत्र कहीं ऐसा संभव ही नहीं है। यहां माननीय अपनी सुविधानुसार नियम बनाते और फिर उसे तोड़ते हुए फिर उसे बना सकते हैं। कुछ ऐसा ही भोपाल लोकसभा सीट से भाजपा प्रत्याशी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के मामले में भी देखने को मिल रहा है। भाजपा द्वारा उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित करते ही मानो देश में राजनैतिक भूचाल सा आ गया है। जिसका असर कश्मीर से कन्याकुमारी तक देखने को मिल रहा है। मानो साध्वी ठाकुर को भाजपा ने प्रत्याशी बनाकर कोई बहुत बड़ा गुनाह कर दिया है। भाजपा के इस कदम को लेकर आज उसके विरुद्ध देश भर से आवाज़ें उठने लगी हैं। ये विरोध सिर्फ भोपाल तक ही सीमित नहीं है। आज तक कश्मीर से आगे न बढ़ने की सोच रखने वाले नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी जैसे दलों के नेता भी साध्वी के चुनाव लड़ने पर ऐतराज़ जता रहे हैं। इनका मत है कि राष्ट्रवाद का दंभ भरने वाली पार्टी ने एक आतंकी साज़िश में शामिल किसी महिला को टिकट क्यों दिया,जबकि वो जमानत पर बाहर हैं।शायद राजनीति के धुरंधरों को इस बात का रत्ती भर भी इल्म नहीं है कि जाने-अनजाने ही सही,वो भारत के उसी संविधान और लोकतंत्र का अपमान कर रहे हैं जिसे बचाने के लिए एकजुट होने का नाटक कर चुनाव लड़ रहे हैं। क्योंकि
शायद उन्हें ये मालूम नहीं कि जो संविधान इन्हें अपना विरोध दर्ज करने का अधिकार देता है, वही संविधान साध्वी प्रज्ञा को चुनाव लड़ने का अधिकार भी देता है।
77 में जार्ज फर्नांडिस और 19 में कन्हैया भी
ये कलुषित मानसिकता का ही नतीजा है कि लोग अलग अलग लोगों के लिए विचार भी अलग तरीके का रखते हैं। अगर इतिहास के पन्नों को पलट कर देखा जाए तो वर्ष 1977 में जॉर्ज फ़र्नान्डिस जिनपर देशद्रोह का आरोप था,उन्होंने जेल से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज किया। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर कन्हैया कुमार तक अनेक महत्वपूर्ण पदों पर बैठे नेता, जो आज जमानत पर हैं और चुनाव लड़ रहे हैं उनसे किसी को कोई ऐतराज नहीं। फिर आखिर साध्वी के चुनाव लड़ने पर लोगों को क्यों ऐतराज हो रहा है?? जिन पर आज तक कोई आरोप सिद्ध ही नहीं हो पाया है। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अभिषेक मनु सिंघवी जैसों को सुबूतों के होते हुए भी एक दिन जेल नहीं जाना पड़ा। बल्कि बिना एफआईआर के साध्वी को जेल की सीखचों के पीछे डालकर उनपर थर्ड डिग्री देकर उनकी रीढ़ की हड्डी तक तोड़ दी जाती है। साध्वी का विरोध करने वाले इस बात को क़तई नजरअंदाज नहीं कर सकते कि साध्वी प्रज्ञा को अदालत ने आरोप मुक्त नहीं किया है,बल्कि 8 सालों में वो दोषी भी साबित नहीं हुई हैं। उनके खिलाफ अभी तक कोई ऐसे सुबूत भी नहीं पाए गए जिससे उन पर मकोका लगाया जा सके। इसके परिणाम स्वरूप 2008 में बिना सुबूत गिरफ्तार साध्वी पर से 2015 में मकोका हटाते हुए उन्हें जमानत दे दी गई। न्याय की अजब दास्तां ये भी है कि अजमल कसाब,अफजल गुरू और याकूब मेमन जैसे आतंकवादी जिन्हें फांसी की सज़ा सुनाई जाती है उनकी सुरक्षा और खानपान पर लाखों खर्च किए जाते हैं। जिस इशरत जहां और उसके साथियों को आतंकवादी कहकर मार गिराया जाता है उन्हें “आम नागरिक” की संज्ञा दी जाती है। और दलील यह दी जाती है कि पुलिस ने उन्हें गोली मारकर मरे हुए लोगों के हाथ में हथियार थमा दिए। लेकिन जब अमेरिका की एफबीआई लश्कर के मुखबिर हेडली को गिरफ्तार करती है तो पूरा समाज एक स्वर में उस इशरत को लश्करे तैयबा की आत्मघाती हमलावर के तौर पर स्वीकार कर लेता है। सीबीआई की विशेष अदालत ने इस कथित फर्जी मुठभेड़ मामले में पूर्व पुलिस अधिकारी डीजी वंजारा और एनके अमीन को आरोपमुक्त कर दिया। विशेष अदालत के जज जेके पांड्या का तर्क है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 197 के तहत किसी भी सरकारी कर्मचारी द्वारा किये गए कृत्य के सिलसिले में मुकदमा चलाने के लिए सरकार से मंजूरी मिलना अनिवार्य है,जो गुजरात सरकार से सीबीआई को नहीं मिली है। इतना ही नहीं जिस 2जी घोटाले को कैग स्वीकार करती है, सीबीआई की अदालत सुबूतों के अभाव में उसके आरोपियों को क्लीन चिट दे देती है। आधी रात को अदालत खुलवाकर एक आतंकी की पैरवी करने वाले लोग जब किसी ऐसे का विरोध करने लग जाएं जिसपर अभी दोष साबित ही न हुआ हो उसे कोई भी सभ्य समाज कदाचित् न्याय संगत नहीं ठहरा सकता है।