प्रदर्शनीयता और आवश्यकता में जमीन-आसमान का फर्क होता है।
एक पुलिस का बड़ा अफसर भी अपनी वर्दी पर झौव्वा भर मेडल टांगे-थोपे रहता है। टोपी भी झमाझम, जैसे “आजाद बैंड” वाले सह-बैंडबाजा वाले। लेकिन पुलिसवालों की ठीक उसी तरह छोटे से भी छोटा वकील भी अपनी कानूनी वर्दी में भी आधा दर्जन से ज्यादा पेन खोंसे रखता है।
लेकिन दोनों में बड़ा फर्क है। इनमें पुलिस वाला इन मेडलों से रंगबाजी दिखाता है। भले ही उन मेडलों का कोई भी अर्थ, उपयोगिता या उपादेयता किसी भी आम आदमी को भले ही धेला भर समझ में न आये। हां, सामनेवाले को अगर ऐसा ही मेडलधारी गियर में लेकर डांट-फटकार ले, तो सामनेवाले का पेट्रोल और ग्रीस एकसाथ पैंट में ही निकल जाता है। पुलिसवालों की उगाही का एक बड़ा आधार वर्दी और उस पर टँगे मेडल की मौजूदगी ही होती है।
लेकिन पुलिस का मेडल सरकारी खजाने से होते हैं, जबकि वकील की जेब में धंसे काले, लाल, हरे ही नहीं बल्कि अन्य विभिन्न पेन, पेंसिल, रबर, कलर-लाइटर, ग्लू का पाउच, कागज पंच करने की छोटी मशीन वगैरह-वगैरह के बारे में यह कहने की जरूरत नहीं होती है यह कि यह सब चीजें वकील अपनी जेब से खर्च करता है।
इन सब चीजों की जरूरत पड़ोसी, राहगीर, मुअक्किल, सीनियर, दोस्त, मुंशी और अक्सर जज साहब ही नहीं अफसर से लेकर पेशकार सुर मोहर्रिर पुलिसवालों को भी पड़ जाती है। जबकि पुलिस के मेडल का कोई भी इस्तेमाल पुलिसवालों के घर वालों को भी कभी नहीं होती। हाँ, पुलिसवाले के घर का छोटा बच्चा अगर जिद करे, तो उसको कंटाप जरूर रसीद कर दिया जा सकता है। ऐसी हालत में जाहिर है कि बीवी पर भी हचक कर डांट पड़ती ही होगी। क्योंकि गायब या टूटे मेडल की प्रतिपूर्ति हो ही नहीं सकती। हाँ, उसके होने या न होने से पुलिसवाले के प्रति किसी भी आम आदमी पर कोई फर्क नहीं पड़ सकता। फेवीक्विक भी अगर मसँगव कर मेडल जोड़ने की कोशिश की जाए, तो वह ग्लू भी फ्री में ही आना संवैधानिक आवश्यकताओं जैसा ही है।
जबकि अगर पेन, कटर, पंक्चर, पेंसिल, रबर या कुछ भी अगर गायब हो जाये, तो वकील साहब पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। वकालत न चले, कम चले या कोई दीगर दिक्कत हो, तो भी इन सामानों को वे फौरन खरीद ही लेंगे। पैसा हो या न हो। गरीबी में चूल्हा ठंडा पड़ा हो, बच्चे चिल्लाते रहें, बीवी नाराजगी में अपना गुस्सा सातवें आसमान पर भले ही कुदक्का कर रही हो, कचहरी में कोट भले पसीने में हो, प्रेस न हो, फटा हो या गन्दा हो, लेकिन जेब मे यह अनिवार्य मालखाना जरूरी होता है, भले ही पुलिस थाने के मालखाने में रखा गांजा, चरस, मादक, चाकू, पिस्तौल गायब हो जाती हो या चूहा उन्हें खा जाता हो।
जबकि पुलिसवाले पर मेडल गायब होने या टूट जाने पर भी उनकी वसूली पर कोई भी फर्क नहीं पड़ सकता है। तनख्वाह भी टाइम से ही मिल जाती है। कोई रियायत नहीं।
लेकिन एक अध्ययन से पता चला है कि करीब 10 फीसदी मुअक्किल अपने मुकदमे के बाद ऐसे भाग निकल जाते हैं, जैसे गधे के सिर पर सींग। 15 फीसदी अपनी गरीबी का वास्ता दिखा कर दया की भीख मांग लेते है। जबकि 5 फीसदी अगली बार की भेंट में देने का वायदा देते हैं।
अब असली वकीलों की भी सुन लीजिए। बड़े वकील अपने कोट वाले मालखाने यानी ऊपरी जेब को खाली ही रखते हैं। फीस भारी-भरकम और एकमुश्त वसूलते हैं, अगली डेट में मामला नहीं लटका तो हर पेशी पर मोटी रकम लेते हैं। कुछ तो ऐसा बवाल कर देते हैं कि उनके मुअक्किल के केस से जुड़े उनके दो-तीन जूनियर भी उसी केस का कोई सब्सिडियरी केस वाली फाइल थमा देते हैं। संदेश यह कि पहले इन फ्रेश केस की फीस अदा करो, पुराने केस पर बाद में काम सोचा जाएगा।