650 साल पहले शुरू हुआ था
ओखला के बसने का इतिहास लगभग साढ़े छह सौ साल पुराना है ओखला के गफ्फार मंजिल, नूर नगर, जाकिर नगर, बटला हाउस, अबुल फ़ज़ल एंक्लेव, और शाहीन बाग जैसे इलाकों को रिहाइश बनाया गया है। लेकिन कम ही लोग जानते होंगे कि शाम ढलते ही देर रात तक चहल-पहल वाले और खरीदारी के लिहाज से महिलाओं की पसंद बन चुके जाकिर नगर, बटला हाउस और शाहीन बाग जैसे इलाकों की बुनियाद कैसे पड़ी और कैसे यह इलाका दिल्ली के मुसलमानों के लिए रहने की सबसे अच्छी जगह बन गया। इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है कि ओखला बस्ती के फलने-फूलने में यमुना नदी की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। 1874 में अंग्रेजों ने आगरा नहर (उसे ओखला नहर भी कहते हैं) बनाई थी, जिसमें यमुना नदी से पानी आता था। इसके आसपास मजदूरों को लगाया गया था जो कि कृषि भी करते थे। लेकिन इसका इतिहास कुछ और पीछे भी मिलता है। 1365 में फिरोजशाह तुगलक ने फ़ैज़ी नहर’ का निर्माण किया था और बाद में इसी नहर को अंग्रेजों ने 1874 में शुरू कर दिया और इसे ‘ आगरा नहर” दे दिया। इस तरह ओखला के बसने का इतिहास लगभग 650 साल पुराना है।
जामिया मिलिया इस्लामिया है इलाके की पहचान

ओखला के सही मायनों में बसने का सिलसिला 1935 में शुरु हुआ जब जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे विश्वविद्यालय ने यहां अपना कैंपस बनाया। दरअसल, जामिया मिलिया इस्लामिया केवल एक शैक्षिक केंद्र ही नहीं, बल्कि भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य केंद्र भी था। चूंकि इसकी शुरुआत एक आधुनिक मदरसे के रूप में हुई थी, इसलिए यहां मुस्लिम शिक्षकों और छात्रों की संख्या हमेशा ज्यादा रही। यह एक दिलचस्प तथ्य है कि ओखला किसी योजना के तहत मुस्लिम बहुल क्षेत्र नहीं बनाया गया, बल्कि देश की आजादी के बाद जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों और शिक्षकों ने निजामुद्दीन, महारानी बाग और फिर तैमूर नगर, खिज़राबाद और जुलैना आदि इलाकों में अपनी रिहाइश बनायी। आबादी बढ़ने के साथ-साथ ओखला का विस्तार होता चला गया।
यहां की शाम सुहानी
अगर आप शाम के समय घर से निकलें तो चारों तरफ गहमा-गहमी नजर आएगी। कहीं लोग कबाब और पराठे खाते दिखेंगे तो कहीं कुछ युवा चिकन फ्राई के मजे लेते नजर आएंगे। कहीं कपड़े और आभूषण तलाशती महिलाएं दिखेंगी तो कहीं बच्चे खिलौनों के लिए जिद करते मिल जाएंगे। यह उस क्षेत्र की आज की तस्वीर है जहां 70 के दशक तक जंगल हुआ करता था। आज कोई नहीं मानेगा कि कभी यहां गेहूं और चावल की खेती होती थी। कपड़ा बेचने वाले व्यापारी का कहना है कि 1972 में गफूर नगर आकर बसा था, 500 रुपये में 75 गज जमीन खरीद थी, तो यहां का माहौल एकदम शांत था, लगता ही नहीं था कि मैं दिल्ली में हूं।” बढ़ी हुई आबादी के बारे में उनका कहना है कि, “1976 में, जब तुर्कमान गेट को तोड़ा गया और लोगों को हटाया गया तो कई लोगों ने इस इलाके का रुख किया। लेकिन जिन लोगों ने ओखला में अपना घर बनाया था, वे बहुत डरे हुए थे और तुर्कमान गेट मामले की वजह से बेहद घबराए हुए थे। यही कारण है कि जब जाकिर नगर में जमीन 5 रुपए प्रति गज बिक रही थी तो किसी ने नहीं ली। लोगों को लगता था कि यहां से भी उन्हें उजाड़ दिया जाएगा।” फिर भी, कुछ समय बीत जाने के बाद, कुछ लोगों ने सस्ती दरों पर जमीन खरीदकर तो कुछ ने बिना खरीदे ही चाहरदीवारी बनाकर गैर नियोजित तरीके से यहां रहना शुरु कर दिया। बटला हाउस, जाकिर नगर, गफूर नगर और ओखला के अन्य क्षेत्रों में जितनी भी बेतरतीबी नजर आती है, यह सब अनियोजित निर्माण का ही नतीजा है। 1979-80 का साल ओखला के विस्तार के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हुआ क्योंकि अबुल फ़ज़ल फारूकी ने एक ऐसा प्रोजेक्ट शुरू किया जिसने बढ़ती आबादी को बसने के लिए एक नई जगह मुहैया कराई। अबुल फजल एंक्लेव फारूकी साहिब की सोच का नतीजा है। “29 अक्टूबर 1978 का दिन था जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एक सेमिनार के दौरान सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव सामने लाया गया कि एक ऐसी मुस्लिम बस्ती बसायी जाए जहां मुसलमान अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति और मूल्यों के अनुसार रह सकें। इसके बाद यमुना के किनारे प्लाटिंग शुरु हुई।
मुस्लिम यहां अपने को सुरक्षित महसूस करते है?
ओखला के विस्तार का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ, बल्कि फारूकी साहब की कोशिशों को देखते हुए कुछ दूसरे लोगों ने भी अबुल फ़ज़ल एन्क्लेव पार्ट-2 यानी शाहीन बाग आदि बनाना शुरु कर दिया। आज हालत यह है कि जामिया मिल्लिया इस्लामिया से लेकर जमाते इस्लामी हिंद के मरकज के सामने से होते हुए कालिंदी कुंज तक फ्लैटों की ऊंची-ऊंची कतारें नजर आती हैं। जमीन की कीमतें बढ़ने के चलते फ्लैटों की कीमतें आसमान छू रही हैं। अच्छी बात यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय यहाँ अपने को सुरक्षित महसूस करता है और अब तो, बिजली, पानी, सड़क जैसी बुनियादी सुविधाएं भी उपलब्ध हैं।” ओखला के अतीत और वर्तमान पर नज़र डालने से पता चलता है कि इस जंगल को सजाने संवारने में कई ईमानदार लोगों का हाथ रहा है। लेकिन बस्ती को सरकारी मंजूरी न मिलने की वजह से कई समस्याएं अब भी हैं। हालांकि इसे मंजूर कराने की प्रक्रिया में बहुत प्रगति हुई है, लेकिन कुछ मुश्किलें अब भी हैं। इसके बावजूद, ओखला ने अपनी जो पहचान बना ली है, वह दूसरे इलाकों की नहीं बन पाई है। दिलचस्प बात यह है कि इस क्षेत्र में मरकज जमाते इस्लामी हिंद, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, इस्लामिक फिका एकेडमी, डॉ जाकिर हुसैन पुस्तकालय और संग्रहालय, मौलाना अबुल कलाम आजाद इस्लामिक अवेकनिंग सेंटर, सेंट्रल काउंसिल फॉर रिसर्च इन यूनानी मेडिसिन (सीसीआरयूएम) जैसे दर्जनों शैक्षणिक और अनुसंधान संस्थान शामिल हैं। इस सब के बावजूद भी कुछ समस्याएं हैं जो क्षेत्र की छवि को चुनौती देती हैं।
क्या था बाटला हाउस एनकाउंटर
बाटला हाउस एनकाउंटर जिसे आधिकारिक तौर पर ऑपरेशन बाटला हाउस के रूप में जाना जाता है, सितंबर 19, 2008 को दिल्ली के जामिया नगर इलाके में इंडियन मुजाहिदीन के संदिग्ध आतंकवादियों के खिलाफ की गयी मुठभेड़ थी, जिसमें दो संदिग्ध आतंकवादी आतिफ अमीन और मोहम्मद साजिद मारे गए, दो अन्य संदिग्ध सैफ मोहम्मद और आरिज़ खान भागने में कामयाब हो गए, जबकि एक और आरोपी ज़ीशान को गिरफ्तार कर लिया गया। इस मुठभेड़ का नेतृत्व कर रहे एनकाउंटर विशेषज्ञ और दिल्ली पुलिस निरीक्षक मोहन चंद शर्मा इस घटना में मारे गए। मुठभेड़ के दौरान स्थानीय लोगों की गिरफ्तारी हुई, जिसके खिलाफ अनेक राजनीतिक दलों, कार्यकर्ताओं और विशेष रूप से जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के शिक्षकों और छात्रों ने व्यापक रूप से विरोध प्रदर्शन किया। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जैसे कई राजनीतिक संगठनों ने संसद में मुठभेड़ की न्यायिक जांच करने की मांग उठाई, जैसे-जैसे समाचार पत्रों में मुठभेड़ के “नए संस्करण” प्रदर्शित होने लगे।