एकता में बल और गांठ में छल

    जीवन की समस्याओं के समाधान का मूल मंत्र

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    एकता में बल हैः गांठ में छल हैचपन से लेकर आज तक ऐसी कहानियां और ऐसे उपदेश सुनते और पढ़ते आए हैं जिनमें यह समझाया गया है कि एक होकर रहना, मिल जुल कर रहना, ऐसा करने वाली भंगुर इकाइयों को बहुत शक्तिशाली बना देता है- संघे शक्तिः। यूनाइटेड वी विन; डिवाइडेड वी फाल, आदि।

    यह जैव अस्तित्व से जुड़ी समस्या है और इसका पालन सभी प्राणी करते हैं। सभी झुंड बना कर रहते हैं। सभी प्राणों को संकट में डाल पर अपने समूह के प्रत्येक इकाई को बचाने का प्रयत्न करते हैं। इसके सबसे रोचक नमूने चींटियों, ततैयों, मक्खियों और मधुमक्खियों मे देखे जा सकते हैं।

    कुलपति या किसी एक प्रशासक का होना भी समूह की शक्ति को एकदिश करने की नैसर्गिक आवश्यकता थी और इसे भी चींटियों, मधुमक्खियों आदि में देखा जा सकता है। वहां इसे उस पराकाष्ठा पर पहुंचा हुआ पाया जा सकता है जिसमें राजा या रानी को बचाने के लिए पूरा जत्था अपने प्राणों को उत्सर्ग कर सकता है।

    अब इस यथार्थ को सामने रखते हुए हाब्स, लॉक, रूसो के द्वारा प्रतिपादित राज्य संस्था के उदय के सिद्धांत को रखें, तो वे कितने गलत और बचकाने सिद्ध होंगे? वे गलत नहीं थे। गलती तो हमारी थी। उन्होंने हो सकता है मनु की नकल की हो। ऐंगेल्स भी फैमिली, स्टेट एंड प्राइवेट प्रॉपर्टी में इस नैसर्गिक व्यवस्था की ओर ध्यान नहीं देते।

    समस्या यह है कि जिसे भाषा से अपरिचित प्राणी, और आदिम समाज जानता था, और जिसका पालन करता था, वह मनुष्य को भूल कैसे गया कि उसे पहचानने और कहने वाले तत्वदर्शी प्रतीत होने लगे?

    यह आर्थिक विषमता का परिणाम है, और यह विषमता पहल, अध्यवसाय और जोखिम उठाने के लिए कुछ लोगों के कृत संकल्प होने और दूसरों के अविश्वास. आलस्य, और मौजमस्ती से प्रेम के कारण उनसे सहयौग न करने से पैदा हुईं।

    जो कहना है उसकी भूमिका बनाते हुए मैं विषय से इतनी दूर और इतने नए क्षेत्र में पहुंच जाता हूं, जिसका उससे पहले मुझे भी ज्ञान नहीं होता। हमारी सामाजिक आर्थिक विषमता की समस्याएं उधार ली गई शोषक और शोषित की कोटियों में रख कर नहीं समझी जा सकती। परंतु मैं तो विचार करने चला था गठबंधन की राजनीति पर। उसकी भूमिका तैयार करते हुए मैं विषय से इतना हट गया हूं कि आज उस पर बात हो ही नहीं सकती।

    इसके बाद भी यह तो याद दिलाया ही जा सकता है कि संघबद्धता समरूपों के बीच ही संभव है। दो भिन्न गुण, प्रकृति या उपादानों के बीच सहकारिता का ढोंग संभव है, संगठन – सं-ग्रथन= एक साथ गुंथना, मिलना संभव नहीं हैं। सन के रेसों को एकजुट करके रस्सी और रस्सा बनाया जा सकता है, कपास के रेसों से धागे और रस्से बनाए जा सकते है। परन्तु कपास और जूट के रेसों को एक साथ बटा गया तो किसी एक से बने रज्जु की तुलना में ताकत कम होगी।

    विसदृश के योग से – सन का रस्सा, तार का रस्सा. कपास के धागे का रस्सा तो आप आए दिन देखते हैं पर इनका मिलाजुला रस्सा आप ने इसलिए नहीं देखा क्योंकि यह संभव ही नहीं।

    हम कल कह रहे थे कि मोदी है तो मुमकिन है। राजनीति में तो वह भी मुमकिन है जो न प्रकृति में संभव है न प्रयोग में।

    परंतु अभी तो हुम संगठन (सं-ग्रथन) की बात कर रहे थे, गठबंधन की नियति ‘जुरे गांठ परि जाय’ से समझा जा सकता है। इसमें विसदृश एक दूसरे से मिलना भी चाहें तो दोनों से अलग सचाई सामने आ जाएगी जिसमें दोनों गायब मिलेंगे। प्राथमिक रंगों को मिलाकर देखें जिनसे सेकंडरी रंग बनते हैं और सभी को मिला दें तो कोई रंग रह ही नहीं जाता। उनकी रंगत वढ़ती नहीं खत्म हो जाती है।

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