ख्वाजा विश्वविद्यालय में उर्दू, अरबी-फ़ारसी की अनिवार्यता खत्म हुई

आपको बता दें कि 2009 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने उर्दू, अरबी-फ़ारसी भाषाओं के संरक्षण एवं उनके उन्नयन के मकसद से सूबे की राजधानी लखनऊ में उत्तर प्रदेश उर्दू, अरबी-फ़ारसी विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। कालांतर में यह नाम बदलकर मान्यवर कांशीराम उर्दू, अरबी-फ़ारसी विश्वविद्यालय हो गया।

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लखनऊ (राज्य मुख्यालय) उर्दू, अरबी-फ़ारसी के उन्नयन और पुनर्जीवन के लक्ष्य को लेकर स्थापित की गयी ख्वाजा मुईनुददीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय में अब उर्दू, अरबी-फ़ारसी की बाध्यता नहीं रहेगी।विश्वविद्यालय ने मंगलवार को इस बाबत निर्णय लिया। इसी के साथ उर्दू, अरबी-फ़ारसी की अनिवार्यता खत्म कर दी गई है।

हमारे संवाददाता ने विश्वविद्यालय के सूत्रों के हवाले से बताया कि अब विश्वविद्यालय के छात्र उर्दू, अरबी, फारसी व भारतीय भाषाओं के साथ साथ  अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, जापानी एवं अन्य विदेशी भाषाओं का भी चयन एलिमेंटरी स्तर पर कर सकेंगे। इन भाषाओं में विद्यार्थियों को उत्तीर्णाक प्राप्त करना अनिवार्य होगा किंतु इन अंकों की गणना परिणाम के प्रतिशत में नहीं की जाएगी।

आपको बता दें कि 2009 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने उर्दू, अरबी-फ़ारसी भाषाओं के संरक्षण एवं उनके उन्नयन के मकसद से सूबे की राजधानी लखनऊ में उत्तर प्रदेश उर्दू, अरबी-फ़ारसी विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। कालांतर में यह नाम बदलकर मान्यवर कांशीराम उर्दू, अरबी-फ़ारसी विश्वविद्यालय हो गया।

2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बनने पर इसका नाम सुप्रसिद्ध सूफी संत ख्वाजा मुईनुददीन चिश्ती के नाम पर कर दिया गया। यह नाम योगी आदित्यनाथ की सरकार तक बना रहा लेकिन 2021 में अन्य भाषाओं को समाहित करने के उद्देश्य से तत्कालीन कुलपति प्रोफेसर विनय कुमार पाठक के सुझाव पर इसमें परिवर्तन करते हुए इसका नाम ख्वाजा मुईनुददीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय कर दिया गया।

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