सुन बे 20 : हम होली नहीं मना रहे

मुझे इन रंगों में उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों में मारे गये हिन्दुओं और मुसलमानों का लहू नजर आ रहा है। हमने आत्मशुद्धि के इरादे से इस साल होली नहीं मनाने का निश्चय किया है।

0
521

इस बार होली की पूर्व संध्या पर मन बहुत उदास, खिन्न और उद्विग्न हैं। होली पर आनेवाले संदेशों के साथ रंगों की बौछार तन मन को भिगो नहीं रहे बल्कि हमारे पड़ोस में, उत्तर पूर्वी दिल्ली के कुछ इलाकों में लहू लुहान हुई हमारी दशकों नहीं सदियों पुरानी गंगा जमुनी तहजीब और संस्कृति का एहसास करा रहे हैं। किस तरह हमारी सड़कों और गलियों में दिखनेवाला भाईचारा अचानक एक दूसरे के प्रति संदेह और अविश्वास में बदल गया। राम-रहीम के बंदे इन्सान के बजाय शैतान बन गये। एक दूसरे को मारने काटने, लूटने, संपत्तियां जलाने और नष्ट करने में लग गये। सियासत कामयाब हो गई।

 

दंगाई मानसिकता और दंगों का शिकार बने अथवा बनाए लोगों ने एक बार भी नहीं सोचा कि बाद में हमें इन्हीं गलियों और मोहल्लों में रहना और जीना है। दंगों के दौरान मानवता और इन्सानियत के जीवित रहने के कुछ बेहतरीन और भरोसेमंद उदाहरण भी दोनों तरफ से सामने आए जो भविष्य के लिए बेहतर संकेत हो सकते हैं लेकिन क्या वे काफी हैं और भविष्य में भाईचारे की बहाली में मददगार हो सकते हैं! इन्हें मजबूत करने और बढ़ावा देने की जिम्मेदारी हमारी भी है और आपकी भी।


अधिकृत तौर पर 54 लोगों (जिनमें हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी) की जान लेने और करोड़ों रुपये की संपत्ति को साप्रदायिकता की आग के हवाले करनेवाले इन दंगों के लिए कौन जिम्मेदार और गुनहगार है, कहना मुश्किल है लेकिन एक पत्रकार और मीडियाकर्मी के बतौर हम खुद को भी किसी न किसी रूप में जिम्मेदार और कसूरवार जरूर मानते हैं। यह भी एक कारण है कि जब भी हमारे पास हमारे किसी अभिन्न मित्र शुभचिंतक की रंग भरी होली की बधाई और शुभकामनाएं आ रही हैं, मुझे इन रंगों में उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों में मारे गये हिन्दुओं और मुसलमानों का लहू नजर आ रहा है। हमने आत्मशुद्धि के इरादे से इस साल होली नहीं मनाने का निश्चय किया है। पांच मार्च को अपना जन्मदिन भी नहीं मनाया। मेरा यह फैसला आत्म संतोष देने से अधिक कुछ भी नहीं है और इसका दंगाई मानसिकता वाली सियासत पर भी खास असर नहीं पड़नेवाला।


आप तो होली मनाइए। मेरी शुभकामनाएं भी अपने साथ शामिल कर लीजिए लेकिन एक बार उत्तर पूर्वी दिल्ली के दंगों में मारे गये (अधिकतर बेकसूर) लोगों के बारे में भी एक पल के लिए सोचिएगा जरूर! और यह भी कि नफरत की राजनीति से प्रेरित-प्रोत्साहित सांप्रदायिकता की आग की लपटें तेजी से हमारी और आपकी ओर भी बढ़ रही हैं। सजग और सचेत नहीं हुए तो जाति और धर्म का फर्क किए बगैर हमें और आपको भी अपनी जद में लेने से चूकनेवाली नहीं हैं, यह लपटें।

LEAVE A REPLY