भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 से 18 देश के नागरिकों को समानता का अधिकार देता है। अनुच्छेद 21 में गरमापूर्ण जीवन जीने का भी अधिकार देता है। लोकतांत्रिक सरकारों ने समय-समय पर महिलाओं और पुरुषों की असमानता को खत्म करने के लिए प्रयास किया हैं। लेकिन जब हम समानता और गरिमापूर्ण जीवन की बात करते हैं तो क्यों न्यूनतम शादी की उम्र में असमानता की बात भूल जाते हैं?
क्या हम पितृसत्तात्मक सोच से अभी तक बाहर नहीं आ पाए हैं? आज ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहां पुरुषों से महिलाएं कम हों। भारतीय कानून में पुरुषों की शादी की उम्र न्यूनतम 21 वर्ष निर्धारित की गई है, लेकिन लड़कियों की न्यूनतम शादी की उम्र 18 वर्ष निर्धारित की गई है। जो भारतीय संविधान के समानता वाले ही अधिकार का उल्लंघन करती है। यह असमानता का परिचायक है। इस तरह से रूढ़िवादी मान्यताओं और परंपराओं को बढ़ावा मिलता है।
वर्तमान समय के परिपेक्ष में बदलती महिलाओं की भूमिका के बारे में समाज और देश को विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। लड़कियों की जल्दी शादी होने से उन्हें पढ़ाई; सामाजिक सहभागिता से दूर कर देता है। और उनके पास अच्छे अवसरों की अनुपलब्धता हो जाती हैं। यह किसी एक अच्छे लोकतंत्र राज्य के लिए सकारात्मक बात नहीं है।
लड़कियों के न्यूनतम शादी की उम्र 21 वर्ष करने पर भारतीय संसद, भारतीय समाज और कानून विशेषज्ञों को विचार करने की आवश्यकता है। लड़कियों की न्यूनतम शादी की उम्र 18 वर्ष होने से मौलिक अधिकारों का हनन होता ही है, साथ ही प्राकृतिक न्याय के खिलाफ हम जाने का कार्य करते हैं।
समाज को भी इस पर गहन विचार विमर्श की आवश्यकता है। क्या नारी की दशा सुधारने में समाज अपनी मानसिकता को बदलने के लिए तैयार है? क्योंकि जब तक समाज की तरफ से पहल नहीं हो होगी। तब तक इस असमानता को पाटा नहीं जा सकता है। महिलाओं की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों में सहभागिता बढ़ने से, वह खुद तो मजबूत होंगी ही, बल्कि देश भी सामाजिक रूप से सशक्त होगा।