एक समय था जब दलित अधिकारों को लेकर राजनैतिक गलियारों में नेताओं की होड़ लगी हुई थी| दलित विमर्श पर विचारकों की लम्बी लाइनें लगी हुई थीं| ये एक तबका ऐसा था जिसकी चादर में पैर फ़ैलाने के लिए लोग आतुर रहते थे और इस समाज के समावेशी विकास के नारे बुलंद करते रहते थे| शिक्षा, रोजगार और पहचान की लड़ाई साथ में आरक्षण में बढ़ोत्तरी के वादे आम हो चले थे| अब कुछ लोगों ने अपने को राजनीतिक गलियारों में मुख्य धारा में लाने के लिए एक नई किस्म की वकालत करनी शुरू की और देश में नए नारों ने पाँव पसारना शुरू किया और आवाज उठी कि दलित का नेता दलित हो, मौसम की मार थी कि बहुजन और हरिजन के नायकों की भी कतारें लोकतंत्र की लाचारी को भुनाने लगीं और सियासतें सत्ता पर काबिज होने लगीं| दौर पर दौर चले और देश में एक समय ऐसा भी आया जब चुपके से बहुजन ने बहुसंख्यकों के कंधे पर बन्दूक रखकर दलित राजनीति के मशाल को लौ दी| क्षेत्रीय स्तर पर कार्य शुरू करने वाली पार्टियों ने पूरे देश में दलित रखवारे होने का बिगुल फूंक दिया| परिणाम कुछ भी रहे हों फिर भी चुनावी संघर्ष जारी रहा| कहीं-कहीं छिटपुट सफलताओं ने केंद्र में काबिज होने ही होड़ तेज कर दी| समय और समय बस समय ही था कि देश के दलित इस मकड़जाल की हकीकत से रूबरू होने लगे, जिसकी आहट चुनावी नतीजों में नजर आने लगी है| पिछले दस वर्षों में इस तरह की पार्टियों का ग्राफ गिरने लगा है| यदि बात उत्तर प्रदेश में कई बार सत्ता का स्वाद चख चुकी दलित राजनीति करने वाली पार्टी की करें तो, पिछले दस वर्षों में लगातार ख़राब प्रदर्शन कर रही है| राजस्थान, महाराष्ट्र और उत्तराखंड में हाल ही में हुए चुनावों में यह पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई है| साथ ही उत्तर प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में अपनी धार नहीं दिखा पाई है|
अब इसके कारण कई हो सकते हैं:
दलित राजनीति करने वाली पार्टियाँ दलितों के अधिकारों के लिए सही कदम नहीं उठा पा रही है|
या
वे दलित राजनीति को छोड़ कर अन्य मुद्दों पर चुनावी नाव को पार लगाने की होड़ में हैं|
या
अब वे अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की ओर अपने चुनावी रण को मोड़ रही हैं और दलित अधिकारों की लड़ाई सिर्फ एक हद तक सीमित होती जा रही है|
बात कोई भी हो पर, राजनीति के दलित गढ़ अब चुनावी रण के उद्घोष में हासिए पर नजर आने लगें हैं|
अब्राहम मेराज